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सम्यक्चारित चिन्तामणिः
उच्छ्वासमे नमो आयरियाण णमो उवज्झायाणं और तृतीय उच्छ्वास मे णमो लोए सव्व साहूणं बोलना चाहिये ।
विशिष्ट वीर्य, आत्मबल से सहित कितने ही धेयंशालो मुनिराज, भयंकर श्मशानमे व्यन्तरादिकके द्वारा किये गये बहुत भारी उपसर्गों को सहन करते हैं तथा दुखदायक दुष्टकमको निर्जरा करते हैं ।
आगे कायोत्सर्ग के चार भेद कहते हैं
उत्थितश्वोत्थित. पूर्व उत्थितश्चोपविष्टकः । उपविष्टोस्थितो ज्ञेय उपविष्टोपविष्टकः ॥ ११८ ॥ इति ज्ञेयाश्चतुर्भेदाः कायोत्सर्गस्य सूरिभिः । प्ररूपिता निबोद्धव्याः कर्मनिर्जरणक्षमाः ॥ ११९ ॥ अर्थ - उत्थितोत्थित, उत्थितोपविष्ट, उपविष्टोस्थित ओर उपविविष्टोपविष्ट, इस प्रकार आचार्योंके द्वारा निरूपित कायोत्सर्गके चार भेद जानना चाहिये । इनका स्वरूप इस प्रकार है
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१. उस्थितो स्थित - जिसमे कायोत्सर्ग करनेवाला खडा होकर धर्म्य और शुक्लध्यानका चिन्तन करता है वह उत्थितोत्थित कहलाता है ।
२ उत्थितोपविष्ट - जिसमे खड़े होकर आतंरौद्रध्यान किया जाता है वह उस्थितोपविष्ट कहलाता है ।
३. उपविष्टोस्थित -- जिसमे बैठकर धम्यं और शुक्लध्यान किया जाता है वह उपविष्टोत्थित कहलाता है ।
४ उपविष्टोपविष्ट - जिसमे बैठकर आर्तरोद्रध्यान किया जाता है वह उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग कहलाता है ॥ ११८-११६ ॥
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आगे कायोत्सर्ग सम्बन्धो ३२ दोषोके परिहारका निर्देश करते हैंकायोत्सर्गस्य बोधव्या दोषा घोटकादयः । द्वात्रिंशत्प्रमितास्त्याज्याः कर्मनिर्जरणोद्यते ॥ १२० ॥
अर्थ - कर्मोंको निर्जरा करनेमे उद्यत साधुओको कायोत्सर्गके बत्तोस दोष जानकर छोड़ना चाहिये ।'
अब षडावश्यक अधिकारका समारोप करते हैं
त्यक्त्वा प्रमादं वपुषि स्थित ये कुर्वन्ति कार्याणि निरूपितानि । तेषां न मिथ्या विकथासु पातो भवेत् क्वचित्कर्मनिबन्धहेतुः ॥१२१॥
१. इन दोषोका स्वरूप परिशिष्ट में देखें