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सम्यकुचारित्र-चिन्तामणि.
परद्रव्याद् विभिन्नस्य चेतनालक्ष्मशालिनः । आत्मनः स्वानुभूतिर्वा सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥ ७ ॥ मोहादिसप्तमेवानां प्रकृतीनामभावतः । सम्यक्त्वगुणपर्यायो योऽत्र प्रकटितो भवेत् ॥ ८ #1 प्रशस्तं दर्शनं तत्स्यावात्मशुद्धिविधायकम् । सुलभं भव्यजीवस्य मूलं मोक्षस्य वर्त्मनः ॥ ९ ॥ अस्योत्पत्तिक्रमः प्रोक्तः पूर्वं सम्यक्त्ववर्णने । तस्य स्वरूपनिर्देशो देवादीनां च लक्षणम् ॥ १० ॥ सर्व चिन्तामणौ प्रोक्त विस्तारेण यथागमम् । क्षायिकाद्या मता अस्या त्रयोभेदा जिनागमे ॥
११ ॥ अर्थ - अब यहां आगे मुनिधर्मके सारभूत पञ्चाचारोका कथन करूँगा । दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, ये जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए पाँच आचार हैं। आचार्य इनका स्वय पालन करते हैं और दूसरोको पालन कराते हैं। आगे यहाँ क्रमसे इनका स्वरूप कहूँगा । मोक्षमार्गमे सहायभूत देवशास्त्र गुरुका तीनमूढताओ तथा ज्ञानादि आठमदोसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यह सम्यग्दर्शन मोक्षमहलकी पहली सोढो है । यह चरणानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शन है । यथार्थता से सुशोभित जोवादि पदार्थोंका सशयादिसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यह द्रव्यानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा परद्रव्यसे भिन्न चेतना लक्षण से सुशोभित आत्माको जो अनुभूति है वह सम्यग्दर्शन है । यह अध्यात्मको पद्धतिसे सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियो के अभाव - उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे सम्यक्त्व गुणको जो पर्याय प्रकट होतो है वह सम्यग्दर्शन है । यह सम्यग्दर्शन आत्मशुद्धिको करने वाला है, भव्यजोवोको सुलभ है और मोक्षमार्गका मूल है। इसको उत्पत्तिका क्रम पहले सम्यक्त्वके वर्णन मे कहा गया है । सम्यग्दर्शनके स्वरूपका निर्देश तथा देव आदिके लक्षण सम्यक्त्व चिन्तामणिमे विस्तार से आगमानुसार कहे गये हैं। इस सम्यग्दर्शन के क्षायिक आदि तोन भेद जिनागममे कहे गये हैं ।। २-११ ॥ आगे सम्यग्दर्शनके आठ अङ्गोका स्वरूप बताते हुए दर्शनाचारका वर्णन करते हैं
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निःशङ्कत्वादिकं प्रोक्तमङ्गाष्टकममुष्य हि । सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः पदार्था जिनभाषिताः ॥ १२ ॥