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भावोm बोवः समुच्यते । एक ग्रहं गमिष्यामि विधान वा पहिला स्थितान् ॥ ६॥ भाषतं वर्तलाकारं वर्मेति नियमो मतः । पत्तिसंख्यानमामा , तपता मेव उच्यते ॥ ६८॥ घृतदुग्धगुडायोना रसानां परिवर्जनात् । रसत्यागाभिषानोऽयं तपोमेवः प्रगीयते ॥ ६९।। विविक्ते यत्र नायेते शयनासनके मुनेः। तमोमेशः स वियो दिविलायनासनम् ॥ ७॥ मनाबकास मातापो वर्षायोगश्च सावधिः । कायक्लेमस्तपः प्रोक्तं कर्मनिरपक्षमम् ॥ ७१॥ एषां विधिपहिश्यो बाह्यश्वापि विधीयते ।
भतो बाह्याः समुच्यन्ते ता एतास्तपसो भिवाः ॥ ७२॥ अर्थ-यहां से भागे भयंकर वनोमे निवास करनेवाले मुनिराजोंके तप-आचारका वर्णन करूंगा। इच्छाका निरोध करना तपका सामान्य लक्षण है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे वह तप दो प्रकारका स्मरण किया गया है। उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त-शय्यासन और कायक्लेश, ये छह बाह्य तपके भेद कहे गये हैं। अन्न, पान, खाद्य और लेह्य यह चार प्रकारका आहार पुरुषोको शरीरस्थितिका कारण है। इन चारो प्रकारके आहारोका त्याग करना उपवास नामका तप माना गया है। यह तुर्य-एक, षष्ठ-वेला और अष्टम-तेला आदिके भेदसे अनेक भेदो वाला है। क्रमसे एक, दो, तोन आदि प्रासोंके घटानेसे अवमोदर्य नामका तप कहा जाता है।' आज आहारके लिये एक घर तक जाऊँगा अथवा एक पंक्तिमे स्थित दो. तोन घर तक जाऊँमा, लम्बे रास्तोंमे जाऊँगा या गोल मार्गमे जाऊँगा। इस प्रकारका नियम लेकर तदनुरूप प्रवृत्ति करना वृत्तिपरिसंख्यान तपका भेद है। घो, दूध तथा गुड़ आदि रसोका त्याग करना रसपरित्याग नामक तप है। मुनिका जो एकान्त निजन स्थानमे शयनासन होता है वह विविक्त-शयनासन तप है। अध्रावकाश-छाया रहित स्थानमें रहना, आतापन योग तथा वर्षायोग धारण करना कायक्लेश
१. शुक्लपक्षमें एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए और कृष्णपक्षमें एक-एक पास घटाते
हुए माहार करना कवल चन्द्रायण बद होता है। यह वन अवमौवयं तपके अन्तर्गत होता है।