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सप्तम प्रकार के कहे गये हैं। कृत अपराधको शुद्धिके लिये गुरुकी आशानुसारको तप किया जाता है वह प्रायश्चित रूप माना गया है । यह प्रायश्चित भी बालोचना आदिके भेदसे नौ प्रकारका होता है । अपराधी साधु निश्छल भावसे गुरुके आगे जो अपने अपराधका निवेदन करता है उसे विद्वज्जनाने आलोचना कहा है। स्वयं ही अपने अपराधोंका जो मिथ्याकरण करना है उसे प्रतिक्रमण जानना चाहिये। यह प्रतिक्रमण पूर्व बद्ध कोको स्थितिको कम कर देने वाला है। तात्पर्य यह है कि आलोचना गुरुके सम्मुख होती है और प्रतिक्रमण गुरुके बिना ही कृत अपराधोके प्रति पश्चात्ताप करते हुए परोक्ष प्रार्थनाके रूपमे 'मेरा अपराध मिथ्या हो ऐसा कपन करने रूप है। जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं वह तदुभय नामका प्रायश्चित्त है । भाव यह है कि कुछ अपराधोंको शुद्धि प्रतिक्रमण मात्रसे हो जाती है, कुछ अपराधोको शुद्धि आलोचनासे होती है और कुछ अपराधोको शुद्धिके लिये दोनो करने पड़ते हैं। अवधि-समयकी सीमा निश्चित कर अपराधी साधुको जो सखसे पृथक किया जाता है अर्थात अलग बैठाग जाता है, चर्या आदि भो पृथक् करायो जाती है वह विवेक नामका प्रायश्चित्त है। समयको अवधिकर रात्रिमे निर्जन स्थानमें अपराधो साधुको जो कायोत्सर्ग करना होता है वह व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है। जैसे-रक्षाबन्धन कथामे मन्त्रियोंसे शास्त्रार्य करनेवाले श्रुत सागरमुनिको शास्त्रार्थके स्थलपर रात्रिमे कायोत्सर्ग करनेका मादेश दिया गया था और उन्होने उसका पालन किया था। जिसमें प्रायश्चितकी बुखिसे गुरुको आशाको स्कोकृतकर उपवास आदि किया जाता है वह सप नामका प्रायश्चित्त कहा जाता है। जिसमें अपराधकी विषमता देख गुरु द्वारा अपराधी साधुको दीक्षा कम कर दो जातो है वह वनामका प्रायश्चित्त जानने योग्य है । जिसमें अपराधो साधुको सङ्घसे अलग कर दिया जाता है वह परिहार नामका प्रायश्चित है और जिसमें घोर-भारो अपराधको देखकर आचार्य शरा अपराधी साधुको पुनः दीक्षा दी जाती है वह उपस्थापन नामका प्रायश्चित है । पुनः दोक्षित साधु नवदीक्षित माना जाता है। इसे संघके १. मुनियोको बाचार सहितासे नवीन दीक्षित साधु पूर्व दीक्षित साधुको
नमस्कार करते हैं। यदि किसो अपरमनी साधुकी दीक्षाके दिन कम कर दिये जाते हैं तो उसे उन साधुओंको नमस्कार करना पड़ता है जो पहले इसे नमस्कार करते थे।
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