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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः कृष्याविकार्येषु सदाभिरक्त
आरम्भ वाणिज्यसमूहसक्तः । विवेकवार्तानिधयेन मुक्त
श्चकार पापं किमहं न चित्रम् ॥१॥ अर्थ-खेती आदिके कार्योंमे सदा सलग्न, आरम्भ और व्यापारोके समूहमे आसक्त तथा विवेक वार्तासे रहित मैने क्या विचित्र पाप नही किया है अर्थात् सभी पाप किया है ॥ ८१॥ न्यायालये हन्त विनिर्णयार्थ
गतेन हा हन्त मया प्रमोदात् । चित्रोक्तिचातुर्यचितेन चाह.
सत्यस्य कण्ठो मृतिः सदेव ।। ८२॥ अर्थ-यदि मैं निर्णय लेनेके लिये न्यायालयमे गया तो वहाँ मैने अपने वचनोकी चतुराईसे सदा सत्यका ही गला घोटा है ॥ ८२ ॥ व्यापाधलोकान् रहसि प्रसुप्तान
लोभाभिभूतो क्यया व्यतीतः । जीवस्य जीवोपमवित्तजातं
जहार हा हारिसुहारमुख्यम् ।। ८३॥ अर्थ-लोभसे आक्रान्त तथा दयासे शून्य होकर मैने एकान्त स्थानमे सोये हुए मनुष्योको मारकर जीवोके प्राणतुल्य सुन्दर हार आदि धन समूहका अपहरण किया है ॥ ३ ॥ लावण्यलोलाविजितेन्द्रभार्या
भार्याः परेष्या सहसा विलोक्य । बसन्तहेमन्तमुखर्तुमध्ये
कन्दर्पचेष्टाकुलितो बभूव ।। ८४ ॥ अर्थ-अपनी सुन्दरतासे इन्द्राणियोको पराजित करनेवाली परस्त्रियोको देखकर मै वसन्त, हेमन्त आदि ऋतुओमे कामसम्बन्धो चेष्टाओसे आकुल हुआ हूँ।' ८४ ॥ लोभानिलोत्कीलितधर्यकालः
कार्पण्यपण्यायनिकेतनामः। सङ्गाभिषङ्ग प्रविसक्तचित्त
श्चकार चित्राणि न चेष्टितानि ॥ ८५॥