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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः स्वाध्यायमें तोन इस प्रकार पूर्वाल्ल सम्बन्धो सात और अपराह्न सम्बन्धी भी सात इस तरह १४ कृतिकर्म होते हैं। प्रतिक्रमणके चार कृतिकर्म इस प्रकार है-आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति ) करनेमे कायोत्सर्ग होता है, एक 'कृतिकर्म' यह हुआ। प्रतिक्रमण भक्तिमे एक कायोत्सर्ग होता है, यह दूसरा कृतिकर्म है। वीरभक्तिके करनेमे जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है तथा चतुर्विशति तोर्थकर भक्ति करनेमे शान्तिके लिये जो कायोत्सर्ग होता है वह चौथा कृतिकर्म है।
स्वाध्याय सम्बन्धी तीन कृतिकर्म इस प्रकार हैं-स्वाध्यायके प्रारम्भमे श्रुतभक्तिका जो कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है। आचार्य भक्तिकी क्रिया करनेमे जो कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा कृतिकर्म है और स्वाध्यायको समाप्ति होनेपर श्रुतभक्तिके अनन्तर जो कायोत्सर्ग होता है वह तीसरा कृतिकर्म है। यहां पूर्वाल्लसे दिवस सम्बन्धी और अपराल्लसे रात्रि सम्बन्धो १४ प्रतिक्रमणोको लेकर साधुके अहोरात्रि सम्बन्धो २८ कृतिकर्म कहे गये है। विशेष विवरण के लिये मूलाचार पृ० ४४१-४४२ (भा० ज्ञा० पी० सस्करण ) द्रष्टव्य है। आगे प्रत्याख्यान आवश्यकका वर्णन करते हैं
प्रत्याख्यानमयो बच्मि कर्मक्षणकारणम् । स्थागरूप परीणामो निम्रन्थस्य तपस्विन ।।९।। प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञेयं परमावश्यकं बुधः। योऽपराधो मया जातो नवमः भविष्यति ॥ ९०॥ एवं विचारसम्पन्नो मुनिर्भावविशुद्धये। कुर्वन् मुक्त्यादिसंत्याग प्रत्याख्यानपरो भवेत् ॥ ९१ ।। अनागतादि भेदेन दशधा तच्छ्र ते मतम् ।
विनयादिप्रभेदेन चतुर्धापि समिष्यते । ९२ ॥ अर्थ-अब आगे कर्मक्षयमे कारणभूत प्रत्याख्यान आवश्यकको कहता हूं। निर्ग्रन्थ तपस्वोका जो त्यागरूप परिणाम है उसे ज्ञानीजनोके प्रत्याख्यान नामका परमावश्यक जानना चाहिये। जो अपराध मुझसे हुआ है वह आगे नहीं होगा, इस प्रकारके विचारसे सहित साधु भावशुद्धिके लिये भूक्ति-आहार आदिका त्याग करता हुआ प्रत्याख्यानमे तत्पर होता है । आगममे वह भुक्तिका त्यागरूप प्रत्याख्यान दश प्रकार १ मूलाचार गाथा ५६६ और उसकी आचारवृत्ति ।