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षष्ठ प्रकाश
मुहेण एय जिणवंदणाए णिरवज्जभावजाणाषण दुवारेण वंदणा विहाण तप्फलाणं च परूवणं कुणइ ति वंदणाए क्लव्वं ससमओ।
समाधान-उपर्युक्त शकाका परिहार करते हैं-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात नही होगा क्योकि वन्दना करनेवालेके ऐसी प्रतिज्ञारूप नियम नही पाया जाता कि मैं एक जिण या जिना. लयकी वन्दना करूंगा तथा ऐसा करनेसे शेष जिन और जिनालयोको वन्दना नही को, ऐसा नहीं है। क्योकि अनन्तज्ञान दर्शनवोर्य, सुख आदिके द्वारा सब एकत्वको प्राप्त है अत: एकको वन्दना करनेसे सबकी वन्दना हो जाती है । यद्यपि ऐसा है तो भी चतुर्विशति स्तवमे वन्दनाका अन्तर्भाव नही होता क्योकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका एकत्व-अभेद माननेमे विरोध आता है। फिर सभी पक्षपात अशुभकर्म बन्धका हेतु भी नही है क्योकि मोहरहित जिनेन्द्र के पक्षपातमे अशुभ कर्मोका बन्ध नहीं होता। एकजिन और सभी जिनोकी वन्दनाका समान फल है। अत. समस्त जिनोको वन्दनाका करना फल सहित नहीं है इसलिये एकको वन्दना करनी चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि छद्मस्थका उपयोग एक साथ सबकी स्तुतिमे लग भी नहीं सकता। अत. एककी हो वन्दना करनी चाहिये, ऐसा एकान्त आग्रह नही करना चाहिये क्योकि एकान्तका आग्रह दुर्णय-मिथ्यानय है। इसलिये उपर्युक्त बाधाओके निराकरणपूर्वक एक जिनको वन्दना निरवद्य है यह बतलानेके लिये वन्दनाका प्रकार और उसके फलका प्ररूपण किया जाता है। एक तीर्थङ्करके स्तवनरूप वन्दनामे महावीर तोर्थङ्करका स्तवन इस प्रकार हैअगाधेभवाब्धो पतन्त जनं यः
समुद्दिश्य तत्त्वं सुखाढ्यं चकार । क्याब्धिः सुखाग्धिः सबासौख्यरूपः
सवीरः प्रवीरः प्रमोवं प्रदद्यात् ॥१५॥ अर्थ-जिन्होंने अगाध-गहरे संसार सागरमें पडते हुए जीवोको तत्त्वका उपदेश देकर सुखी किया था, जो दयाके सागर थे, सुखके समुद्र थे तथा सदा सुख स्वरूप थे वे अतिशय शूरवीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें॥१५॥
बातशय दयाको मागाव ये भगवान्