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षष्ठ प्रकार क्रमणमें चार और स्वाध्यायमे तोन कृतिकर्म करना चाहिये। ये कृतिकम पूर्वाह्न और अपराह्न-दोनो समय होते हैं तथा दोनोंके मिल कर चौदह होते हैं। विधिपूर्वक ही किये गये कार्य फल देनेमे समर्थ होते हैं। कृतिकर्मका विशेष स्पष्टीकरण प्रतिक्रमण आवश्यकके वर्णनमे किया जायगा ॥ २६-३१ ॥ आगे स्तुति आवश्यकका कथन करते हैं
चतुविशति तीर्थेशां धर्मचक्रप्रवतिनाम् ।
स्तुतिर्या विविधतस्तत्स्तुत्यावश्यकं मतम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-धर्मचक्रके प्रवर्तक चौबीस तीर्थङ्करोकी नाना छन्दो द्वारा स्तुतिकी जाती है, वह स्तुति नामक आवश्यक है ।। ३२॥
विशेष-इस सन्दर्भमे कषायपाहुड प्रथम भाग (पृ०६१-६२-६३ ) का शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है
'चउवोस वि तित्थयरा सावज्जा, छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएस कारित्तादो। त जहा-दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउ. विहो सावयधम्मो। एसो चउविहो वि छज्जीव विराहओ, पयण पायणग्गि सधुक्षण-जालण-सूदि-सूदाणादि वाबारेहि जोवबिराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिपादणपादावण-तद्दहण दहावणादि वावारेण छज्जीव विराहण हेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो । ण्हवणोवलेवण-समज्जणछुहावण-फुल्लारोवण-धूवदहणादि वावारेहि जीववहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववतोदो च । कथ सोलरक्खणं सावज्ज ? ण, सदारपोडाए विणा सोलपरिपालणाणुववत्तोदो। कथ उववासो सावज्जो ? ण, सपोट्टत्थ पाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजोवे मोत्तूण तसजीवे चेव मा मारेहु ति सावियाण मुवदेसदाणदो वाण जिणा णिरवज्जा। अणसणोमोदरिय-उत्तिपरिसंखाण-रसपरिच्चाय-विवित्त-सयणासण-रुक्ख मूलादावणब्भोवासुक्कुडासण-पलियंकद्धपलियंक-ठाण-गोणवोरासण-विणय-वेज्जावच्च-सज्झाय-शाणादिकिलेसेसु जोवे पयिसारिय खलियारणादो वा ण जिणा हिरवज्जा तम्हा ते ण वदणिज्जा ति ?
एत्य परिहारो उच्चदे-तं जहा-जइ वि एवमुवदिसंति तित्ययरा तो वि ण तेसि कम्मबंधो अस्थि, तत्थ मिच्छत्ता संजमकसायपच्चयाभावेण वेयणोयवज्जा सेस कम्माणं बंधाभावादो। वेयणोयस्स विणट्ठिदि अणुभागबधा अस्थि, तत्थ कसाय पच्चया भावादो। जोगो अस्थि त्ति