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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
सेवात्र साधुभिर्ब्राह्या नंद धातुविनिर्मिता ।
अल्पमूल्या गृहस्थानां या वा नैवोपकारिणी ॥ ६० ॥ तस्याहरणसम्मीतिनं स्याज्जातु तपस्विनाम् । एकद्वित्रीणि शास्त्राणि साधूनां हि तपस्विनाम् ॥ ६१ ॥ ज्ञानोपकरणत्वेन न निषिद्धानि सूरिभिः । चातुर्मासस्य बेलायां बहुशास्त्रावलोडनम् ॥ ६२ ॥ न निषिद्धं सुनीद्राणां तत्स्वामित्वविवर्जनात् । ग्रन्थनिर्माणवेलायां तत्सहयोगकारिणाम् ॥ ६३ ॥
पठनं बहुशास्त्राणां विधेय ननु वर्तते । ज्ञानस्य वर्धनं शास्त्रं ज्ञानोपकरणं मतम् ॥ ६४ ॥ एषामादानवेलायां निक्षेपावसरे तथा । जीवबाधा न कर्तव्या. स्वात्मकल्याणवाञ्छिभिः ॥ ६५ ॥
अर्थ - शौचका उपकरण कमण्डलु, संयमका साधन पिच्छी और ज्ञानका उपकरण शास्त्र, यही साधुका परिग्रह है । इनके उठाने और रखनेमे साधुकी जो सावधानता है वही आदान-निक्षेपण समिति कहलाती है । आकाशमे कालो कालो, बीच बीचमे गरजतो और बिजली की कौधसे चमकती घनघटाको देखकर मयूर बनमे अपनी पिच्छावलोको फैलाकर नृत्य करते हुए पंखोको स्वय छोडते है । वनेचर- भील आदि उन्हे लेकर मनुष्योको देते हैं, वे उन्हें लेकर पिच्छिकाएँ बनानेके लिये साधुओ सघमे भेजते है । उन पंखोसे साधु स्वय हो पिच्छिकाएँ बनाते है । पिच्छिकाओका कोमल स्पर्श जोवोको पीडा देनवाला नही है, अतः दिगम्बर साधु उसो मयूर पिच्छको ग्रहण करते हैं । कहीपर किन्हीने परिस्थितिवश गोध और बगलोके पाख भो पिछी रूपसे स्वीकृत किये हैं पर वह पक्ष समीचीन नही है ।
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नारियल या काठसे जो कमण्डलु बनाया जाता है वही साधुओ द्वारा ग्रहण करने योग्य है, धातुओसे निर्मित नही । जो अल्पमूल्य हो और गृहस्थोके काम आने वाला न हो ऐसा कमण्डलु ही ग्राह्य है क्योकि ऐसे कमण्डलुके चुराये जानेका भय साधुओं को नही होता ।
तपस्वी साधु एक, दो या तीन शास्त्र साथमे रक्खे तो ज्ञानका उपकरण होनेसे आचार्योंने उनका निषेध नही किया है । चातुर्मासके समय बहुत शास्त्रोका आलोडन- देखना-संभालना मुनियोंके लिये निषिद्ध नही, क्योकि उनके वे स्वामी नही होते । किसो मन्दिर या