________________
चतुर्थ प्रकाश कहे गये हैं। ये सब छोडने योग्य हैं अर्थात् इन्हें टालकर आहार करना चाहिये ।। २८-३५॥ आगे माधुकरी आदि पांच वृत्तियोका वर्णन करते हुए पहले माधुकरी वृत्तिका कथन करते हैं
माधुकर्यादिवृत्तीनां धारका मुनिपुङ्गवाः। विरक्ताः स्वशरीरेभ्यो विचरन्ति महीतले ॥ ३६॥ यथा मधुकरः पुष्पाद रसं गृह्णन् तबुद्भवम् । बाधां न कुरुते पुष्पं तथा साधुर्गहस्यतः ॥ ३७॥ आहार स्वेप्सितं गृह्णन् न तं पीडयति क्वचित् । एषा माधुकरीवृत्तिर्गदिता चरणागमे ॥ ३८॥
एथव धामरीवृत्तिः कथ्यतेऽपरनामतः । अर्थ-माधुकरी आदि वृत्तियोको धारण करनेवाले मुनिराज अपने शरीरसे विरक्त हो पृथिवीतलपर विहार करते हैं। जिस प्रकार मधुकर-भ्रमर फूलसे उसके रसको ग्रहण करता हुआ फलको बाधा नही करता उसी प्रकार साधु गृहस्थसे अपने योग्य शुद्ध आहार लेते हुए गृहस्थको पीडित नहीं करते। यह चरणानुयोगके शास्त्रोमे माधुकरो वृत्ति कही गई है, यही वृत्ति दूसरे नामसे भ्रामरोवृत्ति भी कही जाती है ॥ ३६-३८ ॥ अब गोचरोवृत्तिका स्वरूप कहते हैं
यथा गौर्घाससम्पूर्ण दवतं नव पश्यति ॥ ३९॥ पश्यति घाससम्पूलं तथायं हि मुनीश्वरः। प्रासं पश्यति पाणिस्थं दवतं नैव पश्यति ॥ ४०॥ गृहिणां गृहमध्ये या रागवर्धक भूतयः। ताः प्रत्यस्य न दृष्टिः स्यात् स्वात्मन्येव हि सा भवेत् ॥४१॥ एषा गोचरीवतिः कथ्यते सरिसत्तमः।
अहो वैराग्यमाहात्म्यं गवितुं केन शक्यते ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गाय घासका पूला देनेवालेको नही देखतो किन्तु घासके पूलको देखतो है उसी प्रकार वे मुनिराज पाणिपात्रमे स्थित ग्रासको देखते हैं, ग्रास देनेवालेको नही । गृहस्थोके घरमे जो रागवर्द्धक सम्पदा है उसकी ओर इनको दृष्टि नही रहती, निश्चयसे उनको दृष्टि १. धपालीस दोष और बत्तीस अन्तरायोका वर्णन परिशिष्टमे देखें।