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तृतीय प्रकाश
कामिनी कुचकक्षाविसुन्दराङ्गविलोकनम् । रागान्नंव
करिष्यामि कामाकुलितचेतसा ॥ १०९ ॥
गार्हस्थ्यावसरे मोगा मुक्ता ये हि मनोहराः । नैव तेषां करिष्यामि स्मरणं जातुचिन्मुदा ॥ ११० ॥ कामवृद्धौ सहाया ये रसमात्रादयो मताः । तेषां ससेवनं नैव करिष्यामि कदाचन ।। १११ ॥ स्वशरीरस्य संस्कार स्वमलमोचनादिकम् । करिष्यामि प्रमोदान्नो बेहसौन्दर्यहेतवे ।। ११२ ॥ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थं पञ्चता भावना मताः । भाव्यन्ते मुनिभिनित्य कर्मणां क्षपणोद्यतः ॥ ११३ ॥ अर्थ - स्त्रियोमे राग बढानेवाली जो कथाएँ पृथिवीपर प्रसिद्ध हैं रागोजनोके समागम - गोष्ठीमे मैं उन्हे नही सुनूगा । कामसे आकुलित चित्त होकर स्त्रियोके स्तन तथा कक्ष आदि सुन्दर अङ्गोका रागसे अवलोकन नही करूँगा । गृहस्थ अवस्थामे जो मनोहर भोग भोगे थे उनका कभी हर्षपूर्वक स्मरण नही करूँगा । काम-वृद्धिमे सहायक जो रस मात्रा आदिक हैं उनका सेवन कभी नही करूंगा और शरीरको सुन्दरता के लिये त्वचा का मैल छुडाना आदि कामोसे शरोरका सस्कारसजावट नही करूगा । ब्रह्मचर्यको रक्षाके लिये ये पाच भावनाए है । कर्मो का क्षय करनेमे उद्यत मुनिराज इनकी निरन्तर भावना करते है ।। १०८-११३ ।।
अब अपरिग्रह व्रतकी पाच भावनाएं कहते हैं
इष्टानिष्टेषु पञ्चानामक्षणां विषयेषु च । रागद्वेषपरित्यागः पञ्चता भावना मताः ॥ ११४ ॥ नंन्ध्यव्रतरक्षार्थ सुनयो भावयन्ति याः ।
व्रत संरक्षणायोक्ताः पञ्चविंशति भावनाः ।। ११५ ।। अर्थ - पञ्च इन्द्रियोके इष्ट-अनिष्ट विषयोमे राग-द्वेषका त्याग करना, ये वे पाच भावनाएं हैं, जिनका कि अपरिग्रह व्रतकी रक्षाके लिये मुनि चिन्तन करते हैं । इस प्रकार पाच महाव्रतोको रक्षाके लिये पच्चीस भावनाए कही ।। ११४-११५ ।।
आगे मुनिव्रतको प्रधानता बतलाते हुए महाव्रताधिकारका समारोप करते हैं