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द्वितीय प्रकाश
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आगे संयमofount प्राप्त करनेवाला कौन जोव कितने करण करता है और उन करणोमे क्या कार्य करता है यह कहते हैं
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आद्योपशमसम्यक्त्वाल्लभते यदि सयमम् । अधःप्रवृतप्रभूति कुरुते करणत्रयम् ॥ ६ ॥ यदि वेदकसम्यक्त्वी वेदकप्रायोग्यवान्वा । लभते संयमस्थानमनिवृति विहाय तत् ॥ ७ ॥ विशुद्ध्या वर्धमानोऽयं कुरुते करणद्वयम् । यदि क्षायिकसम्यक्त्वो लभते संयमं शुभम् ॥ ८ ॥ वर्धमान विशुद्ध्याढ्यः कुरुते करणद्वयम् । स्थितिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डकसंक्षतिः बन्धा पसरणादीनि गुणश्रेणी च संक्रमः । जायन्तेऽपूर्वकरणे नियमात्साधु
॥९॥
सन्ततेः ॥ १० ॥
उच्यते ।
आर्यखण्डसमुत्पन्नः कर्मभूमिज म्लेच्छखण्डोद्भवो मर्त्योऽकर्मभूमिज इष्यते ॥ ११ ॥ आर्मखण्डे समायान्ति ये सार्धं चक्रवर्तिना । तेषु केचिद् धरन्तीह मुनिदीक्षां सनातनीम् ॥ १२ ॥
अर्थ - यदि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य संयमको प्राप्त होता है तो वह अधःप्रवृत्त आदि तोनो करण करता है । यदि वेदक सम्यदृष्टि या वेदक प्रायोग्यवान् - वेदककालमे स्थित मिथ्यादृष्टि सयम - स्थानको प्राप्त होता है तो वह विशुद्धिसे बढता हुआ अनिवृत्तिकरण को छोडकर शेष दो करण करता है । स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डकघात, बन्धापसरणादिक, गुणश्रेणी निर्जरा तथा अशुभ कर्मोंका शुभ कर्मरूप सक्रमण, ये सब कार्य मुनिसमूहके नियममे अपूर्वकरण नामक करणमे होते हैं । आर्यंखण्डमे उत्पन्न हुआ मनुष्य कर्मभूमिज कहा जाता है और म्लेच्छ खण्डोमे उत्पन्न हुआ अकर्मभूमिज माना जाता है । दिग्विजय कालमे म्लेच्छ खण्डके जो मनुष्य चक्रवर्तीके साथ आर्य खण्डमे आते हैं उनमे से कोई मनुष्य यहा श्रेष्ठ मुनिदीक्षा धारण करते हैं ॥ ६-१२ ॥
आगे सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका स्वरूप कहते हैं
सर्व सावद्यसंयोगं त्यक्त्वा केचिन्मुनीश्वराः । भवन्ति समताधारा घृतसाबायिका भुवि ॥ १३ ॥