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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
द्वितीय प्रकाश चारित्रलब्धिअधिकार
मङ्गलाचरण
स्ववशीकृतानि
रिन्द्रियाणि चित्तस्य चाञ्चल्य मनीरितञ्च ।
तान् संयतान् स्वात्म विशुद्धियुक्तान्, वन्दे सदाहं शिवसौख्यसिद्ध्ये ॥ १ ॥
अर्थ- जिन्होने इन्द्रियोको अपने अधीन किया है तथा चित्तको चलताको रोका है, स्वात्मविशुद्धिसे युक्त उन सयतो - ऋषि, मुनि, यति और अनगार भेदसे युक्त चतुविध साधुओको मै मोक्षसुखकी प्राप्ति के लिये सदा नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
आगे चारित्रको कौन व्यक्ति प्राप्त करता है, यह लिखते हैं
चारित्र लभते कोऽत्र क्वत्यः कीदृक् च मानवः । कीवृक् तस्यात्मभावः स्यादिति चिन्ता विधीयते ॥ २ ॥ मनुजः कर्मभूम्युत्थोऽकर्मभूमिज एव च । ज्ञानोपयोगसयुक्तः सल्लेश्याभिः समन्वितः ॥ ३ ॥ पर्याप्तो जागृतो योग्यद्रव्यक्षेत्रादिशुम्भित. । लभते चारित्रलब्धि कर्मक्षयविधायिनीम् ॥ ४ ॥
प्रथमाद्वा चतुर्थाद्वा पञ्चमाद्वा गुणादयम् । प्राप्नोति सयमं शुद्धि वर्धमानां समाश्रितः ॥ ५ ॥
अर्थ - इस पृथिवीपर कहाँ उत्पन्न हुआ कैसा मनुष्य चारित्र - को प्राप्त होता है और उसका आत्मभाव कैसा होता है ? इसका विचार किया जाता है। जो कर्मभूमि अथवा अकर्मभूमिमे उत्पन्न हुआ है, ज्ञानोपयोगसे सयुक्त है, शुभलेश्याओसे सहित है, पर्याप्त है, जागृत है तथा योग्य द्रव्य क्षेत्र आदिसे सुशोभित है ऐसा मनुष्य कर्मक्षय करने वाली चारित्रलब्धिको प्राप्त होता है। बढ़ती हुई विशुद्धिको प्राप्त हुआ यह मनुष्य प्रथम, चतुर्थ अथवा पञ्चम गुणस्थान से सयम - महाव्रत को प्राप्त होता है । अर्थात् इन गुणस्थानोर्स सयमको प्राप्त होने वाला मनुष्य पहले सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होता है, पश्चात् षष्ठ गुणस्थानमे आता है ।। २-५ ॥