________________
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि सम्बन्धी लोभका विशुद्धि द्वारा उपशम करते हुए नवम गुणस्थानमें ही रहते हैं अर्थात् यह सब कार्य नवम गुणस्थानमे ही होते हैं। इस प्रकार नवक द्रव्य और उच्छिष्टावलीको छोडकर शेष मोहनीयका सर्वथा उपशम हो जाता है। पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका वेदन करते हुए दशम-सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमे आते है और वहाँ उसका सज्वलन सम्बन्धो सूक्ष्म लोभका भी उपशम कर सब प्रकारसे उपशान्त होकर ग्यारहवें गुणस्थानमे पहुंचते हैं । इस गुणस्थानवर्ती मुनि, नीचे बैठो हुई कोचडसे युक्त शरद् ऋतुके सरोवरके समान होते हैं।
भावार्थ-इस गुणस्थानमे मोहनीयकर्मका उदय नही रहता, किन्तु सत्ता रहती है। उदय न रहनेसे परिणामोमे निर्मलता रहती है परन्तु लघु अन्तर्मुहूर्तमे सत्ता स्थित संज्वलन लोभका उदय आनेसे मुनि गिरकर नोचे गुणस्थानमे आ जाते हैं। यदि मृत्युकाल नही है तो वे क्रमसे नीचे आते हैं और मृत्यु हो जानेपर विग्रहगतिमे एक साथ चतुर्थ गुणस्थानमे आ जाते हैं। क्रमश छठवे गुणस्थान तक आनेके बाद कोई पुन. उपशमश्रेणोपर आरूढ हो जाते हैं। एक पर्यायमे दो बार उपशमश्रेणो माडी जा सकती है और कोई मुनि छठवें सातवे गुणस्थानमे क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त कर क्षपकश्रेणी माड कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं पर ऐसे जीव अबद्धायुष्क होते हैं अर्थात् उन्होने अभी तक परभवकी आयुका बन्ध नही किया था। दीर्घ ससार वाले कितने हो मुनि ग्यारहवें गुणस्थानसे पतन कर क्रमशः मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे भो आ जाते है और वहाँ एकेन्द्रिय आदिकी आयु बाधकर किञ्चिदूनअर्धपुद्गलपरावर्तनके लिये भटक जाते हैं। उपशमश्रेणी, एक भवमे अधिकसे अधिक दो बार और अनेक भवोको अपेक्षा चार बारसे अधिक नही माडी जाती। क्षपक श्रेणी एक बार ही प्राप्त होतो है और वह भी अवद्धायुष्क मुनिके लिए ।। ४५-६२ ॥ अब आगे मोहनीय कर्मको क्षपणाविधि कहते हुए पहले क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका कथन करते हैं
इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्यामि मोहस्य क्षपणाविषिम् । यथाविषियथाशास्त्रं सक्षेपेण यथामति ॥ ६३ ॥ वेवकदशा समायुक्तः कश्चिदासन्नभव्यकः । तुर्यादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु केषुचित् ॥ ६४ ॥