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ફેદ
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
का नाम स्पृहा पुंसां रामाणां च ब्रह्मचर्ययुता मर्त्या गच्छेयुर्यत्र
परस्परम् । कुत्रचित् ॥ ७८ ॥
जगतीतले ।
महान्तमादर तत्र लभन्ते ब्रह्मचर्यस्य सिद्धयर्थं कर्तव्या ह्यार्यसंगतिः ॥ ७९ ॥ भोजने परिधाने च श्रेया सात्विकता परा । कुशीलजनसंसर्गे निवसेवनंव धामनि ॥ ८० ॥ यथानलस्य संसर्गात्सपिहि द्रवति द्रुतम् । तथैव वनितासङ्गान्नचित्त द्रवति द्रुतम् ॥ ८१ ॥ वृद्धाप्येकाकिनी चार्या न गच्छेत् साधुसनिधिम् । द्वित्रा आर्या मिलित्वेव विदध्युर्ध मंचर्चणम् ॥ ८२ ॥ सप्तहस्तान्तरं स्थित्वा शृणुयु श्रुतवाचनाम् । आचार सहिता ह्येषा पालनीया मुनीश्वरैः ॥ ८३ ॥
अर्थ - -- अब आगे आत्मशुद्धिके उत्कृष्ट हेतु तथा समस्त उपद्रवोका नाश करने वाले ब्रह्मचर्यं महाव्रतको कहूंगा । व्यवहार से स्वकीय और परकीय स्त्रीका त्याग करना ब्रह्मचर्यं कहलाता है और निश्चयसे आत्मस्वरूपमे चरण-रमण करनेको ब्रह्मचर्य माना गया है । ब्रह्मचर्य से च्युत हुए मनुष्य रावण के समान लोकमे सर्वत्र चिरकाल तक तिरस्कार प्राप्त करते रहते है । विधिपूर्वक विवाही गई स्त्री स्वस्त्री कहलाती है और शेष दासो तथा वेश्या आदिक परस्त्री मानी गई है। मानुषी, देवी और और तिरश्च ये तीन चेतन स्त्रिया मानी गई है और काष्ठ तथा पाषाणसे निर्मित एव चित्रमे स्थित अचेतन स्त्रिया कहो गई है। अपना हित चाहने वाले मनुष्योके द्वारा ये चारो प्रकारकी स्त्रिया त्याज्य कहो गई हैं । स्त्री और पुरुष दोनोका शरीर मलको उत्पन्न करने वाला है, मल से उत्पन्न हुआ है और दुर्गन्धको धारण करने वाला है फिर दोनोकी परस्पर प्रोति करना क्या है ? ब्रह्मचर्यसे युक्त मनुष्य पृथिवीतलपर जहा कही भी जाते है वहा महान् आदरको प्राप्त होते हैं । ब्रह्मचर्यको सिद्धिके लिये आर्य मनुष्योकी सगति करना चाहिये तथा भोजन और वस्त्र विषयमे अत्यधिक सात्विकताका आश्रय लेना चाहिये । जहाँ कुशल मनुष्योका ससर्ग हो ऐमे स्थानमे नही रहना चाहिये। जिस प्रकार अग्निके ससर्गसे घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रीके संगसे पुरुषका चित्त पिघल जाता है- कामातुर हो जाता है । वृद्धा आर्यिका भो अकेली साधुके पास न जावे । दो तीन मिलकर ही साधुके पास धर्म
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