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३५.
तृतीय प्रकाश
तिरश्चां विकलां वाणीं सकलां च स्वकीयकाम् ।
दृष्ट्वा वाणीफलं स्वस्य सफलां कुरु सत्वरम् ॥ ५६ ॥ तथा प्रयासः कर्तव्यो येन स्याद् विशदं वचः । अर्थते प्राप्यते सद्भिः ऋतं नाम तदुच्यते ॥ ५७ ॥ मृगतृष्णां जलं ज्ञात्वा जलं प्राप्तुं समुत्सुकः । न लभ्यते जलं क्वापि धावमानेरपि द्रुतम् ॥ ५८ ॥ यद् वस्तु यथा चास्ति तस्य च वचनं तथा ।
तथ्यं नाम भवेत्सत्यं विसंवादविनाशकम् ।। ५९ ।। सते हितं भवेत्सत्यं भवबाधाविनाशकम् । हितं मितं प्रियं ब्रूयादित्याधाय स्वचेतसि ॥ ६० ॥ सद् वचः सततं ब्रूपावसत्यं मा वदो वचः । मौनं हि परमो धर्मस्तदभावे च सत्यवाक् ॥ ६१ ॥ वक्तव्या सततं पुम्भिः सर्व सन्तोषकारिणी । इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्याम्यस्तेयं नाम महाव्रतम् ॥ ६२ ॥ अर्थ - मनुष्य अज्ञान अथवा कषायसे असत्य वचन बोलता है । इसलिये असत्य के दो भेद हैं- अज्ञानजन्य और कषायजन्य । इन दोनो असत्य वचनोमे कषायजन्य असत्य दुर्गतिके बन्धका कारण है। अज्ञानजन्य असत्य वचन क्षीणमोह नामक बारहवे गुणस्थान तक होता है और कषायजन्य असत्य दीक्षा ग्रहण के समय छूट जाता है । राजा वसुका असत्य वचन कषायजन्य था इसलिये वह दुर्गतिका कारण तथा निन्दाका निमित्त हो गया । असत्य वचनका त्याग करनेसे सत्य महाव्रत होता है । यह सत्य महाव्रत अपने आपमें संतोषका कारण है तथा सत्पुरुषोके द्वारा प्रशसनोय है । तिर्यखोकी विकल – अस्पष्ट और अपनी सकल - स्पष्ट वाणोको देखकर वाणीके फलका विचार कर अपने वाणीको शीघ्र हो सफल करो । भाव यह है कि जिन जीवोने पूर्वभवमे असत्य बोलकर वाणोका - वचन बलका दुरुपयोग किया उनको वाणी तिर्यश्व पर्यायमे विकल - अस्पष्ट हुई और जिन्होने पूर्व पर्यायमे सत्य बोलकर वाणीका सदुपयोग किया उनको वाणी मनुष्य भवमे सकल - स्पष्ट हुई। ऐसा विचारकर अपनी वाणीको शीघ्र हो सफल करना चाहिये | मनुष्यको ऐसा प्रयास करना चाहिये जिससे उसके वचन विशद- - स्पष्ट हो । जो सत्पुरुषोके द्वारा प्राप्त किया जाय उसे ऋत कहते हैं । ऋत नाम सत्यका है, सत्य - यथार्थ वस्तु ही किसोके द्वारा प्राप्तको जा सकता है । मृगतृष्णाको जल जानकर उसे प्राप्त करनेके