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मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी
लगभग दसवीं - ग्यारहवीं शती की एक मनोज्ञ मूर्ति खण्डगिरि (उड़ीसा) की गुफा से प्राप्त होती है, और सम्प्रति ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन (क्रमांक : ९९ ) में सुरक्षित है पदूमासन पर कायोत्सर्गमुद्रा में अवस्थित निर्वस्त्र जिन आकृतियाँ वृषभ और सिंह लांछनों से युक्त हैं, जो ऋषभनाथ और महावीर ( २४ वें जिन ) की द्वितीर्थी मूर्ति होने का प्रमाण है । ऋषभ जटामुकुट से शोभित हैं, जब कि महावीर की केशरचना गुच्छकों और उष्णीष के रूप में प्रदर्शित है । ऋषभ की पीठिका पर सिंहासन के सूचक दो सिंहो को नहीं उत्कीर्ण किया गया है; उसके स्थान पर नमस्कार मुद्रा में उपासकों की आकृतियाँ चित्रित हैं । प्रत्येक जिन चामरधरौं, मामण्डल, त्रिछत्र, उड्डोयमान मालाधरों, एवं दुन्दुभिवादकों से युक्त हैं । अलुआरा ( बिहार ) से प्राप्त ग्यारहवीं शती की एक कांस्य मूर्ति पटना संग्रहालय ( क्रमांक: १०६८२) में संगृहीत हैं । लांछनों के आधार पर जिनों की निश्चित पहचान ऋषभनाथ एवं महावीर से की जा सकती है । ऋषभ का वृषभ लांछन अस्पष्ट है, पर स्कंधों तक प्रसारित केशवल्लरियाँ भी स्पष्ट हैं । भामण्डल और त्रिछत्र से युक्त दोनों जिन पद्मासन पर कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्वस्त्र खड़े हैं ।
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खजुराहो : खजुराहो मध्ययुगीन कला एवं स्थापत्य का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, जो काम - क्रिया से सम्बन्धित चित्रणों के लिए आज भी विश्व-प्रसिद्ध है । हिन्दू मन्दिरों के साथ ही इस स्थल पर जैन मन्दिरों का भी निर्माण किया गया था, जिनमें पार्श्वनाथ और आदिनाथ को समर्पित मन्दिर ही सम्प्रति सुरक्षित हैं। इस स्थल पर दसवीं से बारहवीं शती के मध्य की अपार मूर्ति - सम्पदा का वैविध्यपूर्ण भंडार भी सुरक्षित है। खजुराहो से दसवों से बारहवीं शती के मध्य की नौ द्वितीर्थी मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं ( चित्र सं ० १ ) । सभी उदाहरणों में जिनों को दो स्वतंत्र सिंहासनों पर पारम्परिक प्रतिहार्यो के साथ आमूर्तित किया गया है। जिनों की लटकती भुजाओं में पूर्ण विकसित पद्म प्रदर्शित है, जो पूर्व मध्ययुगीन जिन मूर्तियों की एक अभिन्न विशेषता रही है। खजुराहो की द्वितीर्थी मूर्तियों की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि जहां देवगढ़ एवं अन्य क्षेत्रों की मूर्तियों में जिनों के साथ स्वतंत्र लाँछनों एवं शीर्ष भाग में पाँच या सात सर्पफणों, और स्कन्धों पर केशवल्लरियों का नियमित अंकन प्राप्त होता है, वहीं खजुराहो की मूर्तियों में इन विशेषताओं का अभाव रहा है । केवल एक उदाहरण में लाँछनों को दरशाया गया है। आशय यह कि लाँछनों एवं अन्य लक्षणों के अभाव में द्वितीर्थी मूर्तियों में जिनों की पहचान सम्भव नहीं है । ज्ञातव्य है कि दसवीं शती तक खजुराहो के कलाकार सभी जिनों के लांछनों एवं लक्षणों से परिचित हो चुके थे, और इस परिप्रेक्ष्य में द्वितीर्थी मूर्तियों में लॉछनों का अभाव सर्वथा आश्चर्यजनक है ।
आठ उदाहरणों में प्रत्येक तीर्थंकर के सिंहासन छोरों पर द्विभुज या चतुर्भुज यक्ष-यक्षी युगल निरूपित हैं । तीन उदाहरणों में सामान्य लक्षणों वाले यक्ष- यक्षी द्विभुज हैं । दो उदाहरणों में उनके करों में अभयमुद्रा और जलपात्र प्रदर्शित है । मन्दिर : ३ की ग्यारहवीं शती की मूर्ति में द्विभुज यक्ष-यक्षी पद्म और फल से युक्त हैं। पाँच उदाहरणों में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं । चतुर्भुज यक्ष-यक्षी की भुजाओं में सामान्यतः अभयमुद्रा, पद्म पद्म ( या शक्ति) ( या पद्म से लिपटी पुस्तिका) एवं फल ( या जलपात्र) प्रदर्शित है । एक उदाहरण के अतिरिक्त अन्य सभी में दोनों तीर्थंकरों के चतुर्भुज यक्ष-यक्षी समान लक्षणों वाले हैं । आदिनाथ मन्दिर से सटे
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