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हसु याज्ञिक
. ब्राह्मण, बौद्ध अने जैन-भारतीय धर्मनी आ णे मुख्य धाराओमां अन्य धर्म के संप्रदायनां सिद्धांत-मान्यतादिनो स्थूल के सूक्ष्म, स्पष्ट के प्रच्छन्न उपहास थयेलो जोवा मले छे. हरिषेण कृत 'धम्मपरिक्खा'मां वेदपुरोणादिनां निरूपणोनी न्यूनता, अवास्तविकता मनोवेग-पवनवेग ना कथान कमां दर्शावधामां आत्री छे. आठमी सदीना हरिभद्रकृत प्राकृत 'धूर्ताख्यान'मां पण आ प्रकारचें कथानक छे. तो सामे पक्षे 'दशकुमारचरित' मां बौद्ध साधुना दुराचारो परत्वे ने मत्तविलास, भगवदज्जुकीय, लटकमेलक, धूर्तसमेलन वगेरे प्रहसनोमां कापालिको, पाशुपतो. अने बौद्ध साधुओनी दांभिकता अने दुराचार परत्वे उपहास छे. भरडक-बत्रीशीन घडतर आ परंपरामां जोई शकाय.
_ 'भरटक-द्वात्रिंशिका' मां कृतिनो हेतु तो मूर्खना चरित्र द्वारा सदाचरणनी वृद्धि करवानो दर्शावायो छे. अहीं मळतां ३२ कथानकोमां लंपट. वंचक. धर्त. मख ने मिथ्याभाषी पात्रो आलेखायां छे. कथानु समापन रमूजीरीते, हळवी शैलीमां थतुं होय छे. पांचमी कथामां एक कविनी वात छे. कोई एक कवि गाममां आवो चडयो. परंतु लोकोए कविने एनी कविता बदल कई न परखाव्यु. कविए जोयु तो कई कामकाज वगरना भरडाओने तो जोईए तेटलं गामा . मांथी मळतुं हतुं. ए स्थिति जाणतां कवि बोली ऊठयोः
भरटक तव चट्टा लंबपुठ्ठा समुद्धा न पठति न गुणते नेव कन्वं कुणंते । । वयमपि न पठामो किंतु कव्वं कुणामो
तदपि भुख मरामो कर्मणां कोत्र दोष ? ।। .. सातमी कथामां एक शिष्य भीक्षामां रोटली लावतो दर्शावायो छे. शिष्ये विचायु के 'आमांथी १६ रोटली गुरु ज लई लेशे तो पहेलां ज ए भाग खाई जाउं.' पाछी १६ वधी. ए पैकी गुरुना भागनी वळी खाई गयो. ने ए क्रमे चार, बे, एक अने छेवटे अर्धा रोटली लई गुरुकने आव्यो. गुरुए पूछधु 'अर्धी ज रोटली मळी ?' 'मळी तो तो बत्र स' शिष्य बोल्यो. 'तो बाकीनी क्यां ? गुरूए पूछयु 'हूं खाइ गयो' प्रामाणिक शिष्य बोल्यो. 'केम ?' गुरुए पूछy. 'आम' शिष्य बोल्यो, ने बचेली छेडली अर्धी रोटली पण मोमां पधरावी दीधी. कथाने अंते कहेवायुं छे,
मूखशिष्यो न कर्तव्यो गुरुणा सुखमिच्छता । .
विडम्बयति सोत्यन्तं यथा वटकभक्षकः ॥ तेरमी कथामां गायन पूंछडु पकडी स्वर्गमां जतां, आकाश जोई हाथ पहोळा करी 'अधध' करवा जतां पृथ्वी पर पटकाता मुग्धनी प्रचलित कथा सांकळवामां आवी छे. ने सोळमी कथामा एक शिष्य गुरुनी आज्ञाथी घी अने तेल लेवा बजारमा जाय छे, धूपदानीमा एक बाजु तेल ने बोजी बाजु घी लोधु. गुरुए पूछयु , 'तेल क्यों ' 'ए आ बाजु' शिष्ये धूपदानी उलटावी ने तेल पण भूमिमां ! भरडक बत्रीशी रोस
दहा, चोपाई अने लोकनी कुल ११९० कडीमां जैन कवि मुनि हरजीए सं० १६२५मां, संस्कृत कृतिने आधारे गुजरातीमां 'भरडक बत्रीशी रास' रच्यो छे. ८ शोध अने स्वाध्याय, डॉ. ह. चू. भायाणी पृ. २७-२८ ९ जैन गूजर कविओ, मो. द. देसाई, भाग २, खं. १ पृ० ७१८ तथा फा० स० ० पुस्तक ३ अं. ३, पृ० ३२०
पण
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