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जैन कवि का कुमारसंभव
दास-कृत कुमारसम्भव तथा जैन कुमार-सम्भव की परिकल्पना, कथानक के संयोजन, घट. नाओं के प्रस्तुतीकरण तथा काव्यरूदियो के परिपालन में पर्याप्त साम्य है। यह बात अलग है कि कालिदास का मनोविज्ञानवेत्ता ध्वनिवादी कवि वस्तुव्यापारों को योजना करके भी कथानक को समन्वित बनाए रखने में सफल हुआ है जब कि जयशेखर महाकवि के प्रबल आकर्षण के आवेग में अपनी कथावस्तु को न संभाल सका । कालिदाम के कुमारसम्भव का प्रारम्भ हिमालय के हृदयग्राही वर्णन से होता है, जैन कुमारसम्भव के आरम्भ में अयोध्या का वर्णन है । कालिदास के हिमालय वर्णन के बिम्ब-वैविध्य, यथार्थता तथा सरस शैलो का प्रभाव होते हुए भी अयोध्या का वर्णन कवि की कवित्वशक्ति का परिचायक है । महाकवि के काव्य तथा जैन कुमारसम्भव के प्रथम सर्ग में क्रमशः पार्वती तथा ऋषम देव के जन्म, शैशव, यौवन तथा तज्जन्य सौन्दर्य का वर्णन हैं । कुमारसम्भव के द्वितीय सर्ग में तारक के आतंक से पीडित देवताओं का एक प्रतिनिधि-मण्डल ब्रह्मा की सेवा में जाकर उनसे कष्टनवारण की प्रार्थना करता है । जयशेखर के काव्या में स्वयं इन्द्र ऋषम को विवाहार्थ प्रेरित करने आता है, और प्रकारान्तर से उस कर्म की पूर्ति करता है जिसका सम्पादन कुमारसम्भव के षष्ठ सर्ग में सप्तर्षि ओषधिप्रस्थ जाकर करते हैं। दोनों काव्यों के इस सर्ग में एक स्तोत्र का समावेश किया गया है । किन्तु जहाँ ब्रह्मा की स्तुति में निहित दर्शन की अन्तर्धारा उसे दर्शन के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करती है, वहाँ जैन कुमारसम्भव में ऋषभदेव के पूर्व भवों तथा सुकृत्यों की गणना मात्र कर दी गयी है । फलतः कालिदास के स्तोत्र के समक्ष जयशेखर का प्रशस्तिगान शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता हैं ।
महाकविकृत कुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में इन्द्र तथा वसन्त का संवाद पात्रों की व्यावहारिकता, आत्मविश्वास, शिष्टाचार तथा काव्यमत्ता के कारण उल्लेखनीय है । जैन कवि ने भी इसी सर्ग में इन्द्र-ऋषम के वार्तालाप की योजना की है, जो उस कोटि का न होता हुआ भी रोचकता से परिपूर्ण है। इसी सर्ग में सुमंगला तथा सुनन्दा की और चतुर्थ सर्ग में ऋषभदेव की विवाह पूर्व सज्जा का विस्तृत वर्णन सप्तम सर्ग के शिव-पार्वती के अलंकरण पर आधारित है । कालिंदास का वर्णन संक्षिप्त होता हुआ भी यथार्थ एवं मार्मिक है, जबकि जन कुमारसम्भव का वरवधू के प्रसाधन का चित्रण अपने विस्तार के कारण सौन्दर्य के नखशिख निरूपण की सीमा तक पहुँच गया है । कालिदास की अपेक्षा वह अलंकृत भी है, कृत्रिम भी, यद्यपि दोनों में कहीं-कहीं भावसाम्य अवश्य दिखाई देता है । कालिदास के काव्य में सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु आदि देव तथा लोकपाल शंकर की सेवा में उपस्थित होते है । जैन कुमारसम्भव में लक्ष्मी, सरस्वती, मन्दाकिनी तथा दिक्कुमारियाँ वधूओं के अलंकरण के लिये प्रसाधन-सामग्री भेंट करती है । जैन कुमारसम्भव के पंचम सर्ग में पुरमुन्दरियों की चेष्टाओं
का वर्णन रघुवंश तथा कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग में अज तथा शिव को देखने को लालायित -त्रियों के वर्णन से प्रभावित है। यह यहाँ कहना अप्रासंगिक न होगा कि 'पौर ललनाओं का - ३. कुमारसम्भव, ७।९, ११, १४, २१ तथा जैन कुमारसम्भव, ४१५, १७,
३६४, ४।३१ आदि ४. कुमारसम्भव, ७४३-४५. ५. जैन कुमारसम्भव, ३५१-५५.
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