Book Title: Sambodhi 1978 Vol 07
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 240
________________ दलसुख मालवणिया महावीर का प्रतिपाद्य रहा । उन्होंने कहा हैं कि ये जीव जन्म ग्रहण करते हैं और पुनर्जन्म की परंपरा चलती । इस पुनर्जन्म की परंपरा को निरस्त करना, मोक्ष प्राप्त करना यही जीवन का उद्देश्य है । अत एव आगे चलकर जीवविद्या का विकास उक्त दोनों आगमों के बाद के आगमों में देखा जाता है । वह सारा का सारा विकास जो हम देखते हैं वह स्वयं भ. महावीर की देन है यह नहीं कहा जा सकता । आचार्यों ने उस विषय की व्याख्या की तब जीव का स्वरूप - उसकी नाना प्रकार की गति - उसकी स्थिति उसके भेद इत्यादि विवरण हमें अन्य आगमों में क्रमशः विकसित रूप में मिलते हैं । जीव की विविध गति के सन्दर्भ में ही भूगोल खगोल के विषय में भी आचार्यों ने सोचा और तत्काल में जो उस विषय की विचारणा आर्यों में चलती थी उसका अपनी दृष्टि से समावेश अपने शास्त्र में किया । अतएव उसका भ. महावीरकी सर्वज्ञता से कोई संबंध नहीं है । 3 इसी प्रकार काल का उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि भेद और उनमें तीर्थकरों के उद्भवकी चर्चा भी आगमों में कालक्रम से ही आई है। वैदिकों के युगों की कल्पना को समक्ष रखकर यह व्यवस्था जैनाचार्यों ने सोची हैं । अतएव इसे भी भ. महावीर के मौलिक उपदेशके साथ जोड़ना जरूरी नहीं है । ११२ षड्जीवनिकाय का उपदेश' भ. बन्धनों में पड़ कर नाना दिशाओं में जैनों की विस्तृत कर्मविचारणा ओर गुणस्थान की विचारणा भी क्रमशः ही विकसित हुई है । कर्मरज है, कर्मशरीर है और वह आत्मा का बन्धन है - इससे मुक्ति पाना ही मोक्ष या निर्वाण है और यही जीव का ध्येय है- इतनी सामान्य बातका निर्देश तो मौलिक विचार के रूप में भ• महावीर का है। किंतु कर्म के प्रकार और उनके प्रदेश -स्थिति- अनुभाव आदि का जो विस्तृत निरूपण हम आगमों में देखते है वह मौलिक उपदेश का आचार्यों द्वारा किया गया विकास है और उन्हें भी क्रमशः आगम में स्थान मिला है । चौदह गुणस्थान की चर्चा तो उमास्वाति आचार्य तक भी विकसित नहीं हुई थी यह भी तत्त्वार्थसूत्र (९.४७ ) से स्पष्ट होता है । अतएव उन्हें भ. महावीर के मौलिक उपदेश में शामिल नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि आगे चलकर हम परम्परा में सैद्धांतिक और कार्मग्रन्थिक ऐसे भेदों को देखते हैं । यहाँ तो मैंने स्थूलरूप से क्रमिक विकासका निर्देश किया है। इसका व्यवस्थित निरूपण तो पुस्तक का विषय हो सकता है - व्याख्यान का नहीं । जैनदर्शन के विकास की रूपरेखा में इसकी चर्चा संक्षेप में करूंगा । भ. महावीर के मौलिक उपदेश का जो मैंने निर्देश किया आचार्यों ने किया उसका जो संक्षिप्त विवरण मैंने दिया है उसके लेना उपयुक्त होगा । १. आचा० अ० १ । २. विशेषतः देखें प्रज्ञापना - सूत्र । ३. जीवाजीवाभिगम, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति, आदि । ४. जम्बूद्दीवपत्ति व० २, जीवाजीवाभिगम सूत्र १७३, १७८ ५. भ. महावीर को 'धूटर' कहा है सूत्रकृ० २९९ । ६. आचा० ९९ । ७. सूत्रकृ० ३६६ । Jain Education International और उसी का विकास जो आधार की चर्चा भी कर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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