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दलसुख मालवणिया उल्लेख है। नामतः १२ की गिनती की गई और 'आदि' से अन्य भी अभिप्रेत होंगे। यही सूची थोडे परिवर्तन के साथ धवलामें है जहाँ १४ अंगवाह्य नामतः गिनाये गये हैं। इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि यह सूची सामायिक आदि पृथक् छ: प्रकरण ग्रन्थों का समावेश 'आवश्यक' नाम से किया गया उसके पूर्वकी है। अतएव उत्कालिक अंगबाह्यके आवश्यक
और तद्वयतिरिक्त इस प्रकार का जो विभाजन श्वेताम्बरों में हुआ इसके भी पूर्वकी यह सूची है-ऐसा मानना चाहिए । इस प्रकार का विभाजन नंदी (सू०८०, पृ०३१) और अनुयोगद्वारसूत्र में (सू० ५, पृ० ६०) है।
स्थानांग-समवायांग में अंगबाह्य माने जाने वाले ग्रन्थो में से-केवल क्षुद्रिकाविमानविभक्ति, महाविमानविभक्ति, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशा-कल्प व्यवहार, चन्द्रप्रचप्ति,. सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख है ।-(गुजराती अनु० पृ० २६२ -२६३) और इन चार दशाओं-बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा, संक्षेपित दशा (पृ०२५६) का भी उल्लेख है किन्तु टीकाकार का कहना है कि इनके विषय में हम कुछ नहीं जानते ।
तित्थोगाली में जहाँ श्रुतविच्छेद की चर्चा है वहाँ बारह अंग के उपरांत निम्न श्रत का उल्लेख है-कल्प-व्यवहार, दशा, निशीथ, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, अनुयोगद्वार और नंदी-इससे पता चलता है कि उसके काल तक इन ग्रंथों का आगम में समावेश होगा । इसमें चन्द्र आदि चार प्रज्ञप्तिओं का' उल्लेख नहीं यह सूचित करता है कि अब तक उनका आगमकी कोटि में समावेश नहीं था। अतएव स्थानांग-समवायांग में उनका उल्लेख जो मिलता है वह कालक्रम से आगमकोटि में उन्हें स्थान मिला यह सुचित करता है। - इसके बाद होनेवाली आगमों की सूची के विषय में मैने अन्यत्र चर्चा की है उसे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है । आगमकी संख्या क्रमशः बढी है इतना दिखाना ही यहाँ अभिप्रेत है। ___ आगमों के वर्गीकरण के विषय में भी मैंने अन्यत्र चर्चा की है अतएव उसे भी यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं ।
आगमों में चर्चित विषयों का क्रमिक विकास इसमें तो संदेह को कोई स्थान नहीं है कि आगमों में प्राचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध सबसे प्राचीन स्तर है । उसके बाद क्रम में आता है सूत्रकृत का प्रथम श्रुतस्कंध । और वह भी आचारांग में प्रतिपादित विषयों का मानों विवरण हो ऐसा है । अतएव ये दोनों हमें भ. महावीर के मौलिक उपदेश की झलक देने में समर्थ हैं। उन दोनों में श्रमणधर्म को ही महत्त्व दिया गया है। गृहस्थधर्म की तो केवल निंदा ही है। आगमगत इसी प्राचीन मान्यता में क्रमशः जो परिवर्तन आया वह अन्य आगमों की तद्विषयक चर्चा से स्पष्ट होता है। आगे चलकर गृहस्थ या उपासक वर्ग का निर्माण हुआ और उनको भी जैन संघ में स्थान मिला । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है ।
१ चन्द्र, सूर्य और जंबूद्वीप इन तीन प्रज्ञप्तिओं का समावेश दिगंबर मतसे दृष्टिवाद में है। धवला पु.२, प्रस्तावना पृ० ४३ ।
२ जेन-साहित्य का बृहद् इतिहास प्रस्तावना पृ०३४ से । ३ वही पृ० ३३ से ।
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