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दलसुख मालवणिया स्थानीय षट्खंडागम' है और वह भूतबलि-पुष्पदंतकी रचना मानी जाती है। फिर भी किस प्रकार उत्तरोत्तर अंग आगमों का विच्छेद होता गया और अंतमें किस प्रकार उक्त दो आचार्योंने षट्खडगिम की रचना आ०धरसेन से उपदेश प्राप्तकर की उस विवरणको श्रुतावतारके रूपमें दिया जाता है। नंदी आम्नाय पट्टावलीमें इन दो आचार्यों को एक अंग(आचारांग)घर कहा है (धवला भाग २, प्रस्तावना पृ० २६) और उनका समय वीरनि० ६८३ के बाद कभी है। । धवला टीकामें तो यह स्पष्ट किया है कि लोहार्य के बाद-"ततो सम्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो”-स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य तक संपूर्ण अंग और पूर्वका विच्छेद नहीं था, उनका एकदेश धरसेन तक तो सुरक्षित था। उसी शेष अंश के आधार पर वीरनि. ६८३के आसपास षटूखंडागम की रचना मानी जाती है।
दोनों की तुलना खास ध्यान देने की बात तो यहाँ यह है कि आचार्य धरसेन भी सौराष्ट्र में ही गिरनार को गुफा में थे और सौराष्ट्र के ही वलभी नगरमें श्वेताम्बरों के मतसे आगमों का पुस्तकलेखन हआ। दिगंबरों ने वीरनि. ६८३ के बाद यह किया तो श्वेताम्बरों ने माथुरीवाचना जो वीरनि. ८२७-४० के बीच हुई उसका लेखन वीरनि. ९८० या ९९३ में पूर्ण किया । स्पष्ट है कि दोनोंमें जो करीव ३०० वर्ष का अन्तर है उसीके कारण श्वेताम्बरोंमें आगमों की संख्या बढ गई इतना ही नहीं किन्तु उस संप्रदायकी मान्यताओं की पुष्टि का भी उन्हें अवसर मिला। इन्ही ३०० वर्षों में जो अन्य दिगम्बर ग्रन्थ बने उनमें भी यही प्रक्रिया अपनाई गई और दिगम्बर मान्यताओं को पुष्ट किया गया ।
- वीरनि० ६८३३. बाद रचे गये षट्खंडागममें पतिपाद्य जो विषय है उसमें श्वेताम्बरोका कोई मतभेद नहीं है । यही सिद्ध करता है कि उस समय तक जो, श्रुत सिद्धान्त था उसमें श्वेताबर दिगम्बरमें कोई भेद नहीं था । स्त्री-मुक्ति जैसे विषयमें जो श्वेताम्बर-दिगम्बरमें आज मैद्धान्तिक मतभेद हमारे समक्ष है-वह भी नहीं था। अर्थात् दोनों उस काल तक स्त्री-मुक्ति मानते थे। यह सिद्ध करता है कि पारंपरिक सिद्धान्त दोनोमें सुरक्षित थे । उसके बाद ही वस्त्रके
आचारको लेकर जो मतभेद दृढ़ होता गया उसी के फलस्वरूप स्त्री-मुक्ति का निषेध भी दिगम्बरों में दृढ होता गया । और स्त्रीमुक्तिकी स्थापना यापनीयों में और श्वेताम्बरोंमें दृढ होती गई।
आचार्य उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र भी इस बात का साक्षी है कि वह दोनों संप्रदायों हवाग इसी लिए अपनाया गया है कि उसमें भी मौलिक जैनागमों के सिद्धान्तका निरूपण हैउसी की टीकाएँ जो लिखी गई उसमें दोनों संप्रदायों ने अपनी अपनी मान्यताओं का निरू
१ वस्तुतः षखंडागम जैसा उपलब्ध है वह न तो एक काल की रचना है और न एक आचार्य की रचना है। कई प्रकरणों का उसमें समावेश है जो निश्चित रूपसे एक काल की रचना नहीं। . .
२ यहाँ यह ध्यान देनेकी बात है कि धरसेन को आचार्य परंपरासे प्राप्त था तो ६८३ के बाद कितने आचार्य समझे जाय ?
३ लेखनका यह काल कल्पसूत्रगत उल्लेखके आधार पर ही माना जाता है किन्तु यह भी विचारणीय है कि यह आगमलेखनकाल है या नहीं।
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