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दलसुख मालवणिया
ग्रन्थों की वाचनाका कोई प्रश्न नहीं था । वाचना केवल अंगग्रन्थोंकी आवश्यक समझी गई
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थी । क्योंकि आगम या श्रुत अंगग्रन्थों तक सीमित था। आगे चलकर श्रुतविस्तार हुआअन्य आचार्यकृत ग्रन्थों को भी क्रमशः आगमकोटिमें लाया गया यह कहकर कि वे भी गणधर कृत है' ।
माथुरी वाचना
माधुरी वाचना भी पाटलिपुत्र की वाचना की तरह केवल अंगसूत्रों के लिए ही हुई थी। नंदी चूर्णि में अंग के लिए कालिक शब्द का प्रयोग है पृ० ४६ । उसमें भो अंगवास वाचना या संकलनाका कोई उल्लेख नहीं है। माधुरी वाचना पाटलिपुत्रमें न होकर मथुरामें हुई यह सिद्ध करता है कि उस कालमें पाटलिपुत्र के स्थानमें मथुरा जेनों का विशिष्ट केन्द्र बन गया था । अर्थात् बिहार से हटकर अब जैनोंका प्रभाव उत्तर प्रदेशमें बढ गया था । यहीं से कुछ श्रमण दक्षिणकी ओर गये थे । जिनकी सूचना दक्षिणमें प्रसिद्ध माथुर संघ के अस्तित्व से मिलती है। यह भी एक कारण है कि दक्षिण के दिगंबरों के ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृतमें न होकर भी शौरसेनी भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं । माथुरी वाचनाके प्रधान थे "स्कंदिलाचार्य, वे परंपराके अनुसार वीरनि० ८२७ से ८४० तक युग प्रधान पद पर थे । इस काल तक अंगों के अलावा कई अंग बाह्य ग्रन्थ बन चुके थे किन्तु इसमें उनकी वाचना या संकलनाका प्रश्न नहीं था। इस अंगकी वाचना की आवश्यकता के विषय में दो मत हैं। एक यह कि कालिक श्रुत-अंग आगम अव्यवस्थित हो गया था। यह मत संभवतः = दिगंबर परंपरा के अनुकूल है। दूसरा यह कि उस काल में अनुयोगधरों का अभाव हो गया था, केवल स्कंदिल ही एक मात्र बचे थे। स्पष्ट है कि दूसरे मतके उत्थान का प्रयोजन ही यह दीखता है कि जो कुछ उस वाचनामें किया गया वह नया नहीं किया गया, जो पुराना चला आ रहा था वही व्यवस्थित किया गया जिससे उसके प्रामाण्य में कोई कमी न हो । वास्तविक रूप से देखा जाय तो माधुरी वाचनामें ही परिवर्तन परिवर्धन संशोधन करके अंग सूत्रों को व्यवस्थित किया गया होगा और इसी कारण से उसके प्रामाण्यमें लोग शंका करने लगे होंगे। अतएव उसके निराकरण के लिए ही यह मत उत्थित हुआ कि सूत्रमें कुछ नया नहीं किया गया - सूत्र नष्ट ही नहीं हुए थे या अव्यवस्ति नहीं हुए थे । केवल उनके जानकारों और व्याख्याकारोंकी कमी हो गई थी । इस प्रकार नये निर्माणको प्रामाण्य देना उस दूसरे मत का प्रयोजन सिद्ध होता है । यदि पाटलिपुत्रकी वाचना ही व्यवस्थित की गई होती तो उसके प्रामाण्यके विषय में कुछ प्रश्न ही नहीं उठता और न इस दूसरे मत के उत्थान की आवश्यकता ही होती ।
श्वेताम्बरों द्वारा मान्य अंग ग्रन्थ जो विद्यमान हैं वे माथुरीवाचनानुसारी हैं और उसमें जो परिवर्तन परिवर्धन-संशोधन किया गया है उसके विषयमें आगे चर्चा की जायेगी ।
१ आगम संख्या किस प्रकार क्रमशः बढी इसके लिए देखें-आगम युग का जैन दर्शन, १०२७ ।
२ देखें नंदी कारिका ३२ और उसकी चूर्णि ।
३ नंदी चूर्णि पृ० ९ ।
४ नंदी गा० ३३ ( स्थविरावली) ।
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