________________
जबकि
Jain Education International
जनदर्शन में तर्कप्रमाण
($1.vv) (क1 क2)
से. (क)
ततथ्य कार्य या घटना (परवर्ती)
= सम्भावना
६१
क = कारण या पूर्ववर्ती
> कारण सम्बन्ध आपोदन v=fविकल्प
= निषेध
-
इसकी व्याख्या इस प्रकार होगी किसी तथ्य कार्य अथवा घटना के सम्बन्ध में कुछ सम्मावित विकल्प परिलक्षित होते हैं, एक को छोड़कर शेष सम्भावित विकल्प आनुभविक या तार्किक आधार पर निरस्त हो जाते हैं अतः इम इस निर्णय की ओर अभिमुख होते हैं कि वह तथ्य, कार्य या घटना उस अवशिष्ट विकल्प से सम्बन्धित हो सकती है।
- विकल्प
- विकल्प निषेध
- सम्भावित निर्णय ( प्राक्कल्पना )
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईहा, तर्क (न्याय दर्शन) और प्राक्कल्पना तीनों ही हमें संशय के विभिन्न विकल्प का निरसन करते हुए किसी सर्वाधिक सम्भावित सत्य की ओर पहुंचाने का प्रयास करती है। तीनों का निर्णय सम्भावित और सुझावात्मक होता है । उसका भाषायी रूप होता है - 'इसे ऐसा होना चाहिये' या 'यह ऐसा हो सकता है' । किन्तु निष्कर्ष के इस भाषायी स्वरूप की एकरूपता के आधार पर हमें इन्हें एक मानने की भूल नहीं करना चाहिए। गम्भीरता से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये तीनों एक नहीं है । प्रथम तो यह कि इनकी विचार की विषय वस्तु भिन्न भिन्न है । दूसरे यह कि, ईहा, प्राक्कल्पना और तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप भी एक नहीं है । सम्भवतः न्याय दार्शनिक इसी भ्रान्ति के कारण तर्क को सीधे सीधे व्याप्ति ग्राहक नहीं मान कर मात्र सहयोगी मानते रहे। यदि तर्क का भी वास्तविक रूप सम्भावनामूलक ही है तो निश्चय ही न्याय दार्शनिकों की यह धारणा सत्य होती कि इस पद्धति से व्याप्ति ग्रहण नहीं हो सकता है। प्रथम तो यह कि सम्भावित विकल्यों का निरसन करते हुए हमारे पास जो अवशिष्ट विकल्प रह जावेगा वह भी सम्भावित ही होगा निर्णायक नहीं । दूसरे यह कि संभावित विकल्पों के निरसन की इस पद्धति के द्वारा अविनाभाव यां व्याप्ति ग्रहण कभी भी सम्भव नहीं है। क्योंकि इस बात की क्या गारन्टी है कि सभी सम्भावित विकल्पों को आन लिया गया है और उस तथ्यकी म्यारूपा के सम्बन्ध में जितने भी विकल्प हो सकते हैं उनमें एक को छोड़कर शेष सभी निर. स्त हो गये। जब तक हम इस सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं हो जाते (जोकि सम्भव नहीं है) व्याप्ति या अविनाभाव को नहीं जान सकते । तीसरे यदि यह विधि ऐन्द्रिक अनुभव पर आधारित है तो केवल जो कारण नहीं है उनके निरसन में ही सहायक हो सकती है, व्याप्ति ग्राहक नहीं । जैन दार्शनिकों का यह मानना कि चाहे ईहात्मक ज्ञान प्रामाणिक हो किन्तु उससे व्याप्ति ग्रहण नहीं होता, उचित ही है। पाश्वास्य तार्किकों के द्वारा कारण सम्बन्ध की खोज में प्राक्कल्पना की सुझावात्मक भूमिका मानना भी सही है और यदि तर्क का यही स्वरूमं
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.