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सागरमल जैन होता तो नैयायिकों का यह मानना भी सही होता कि तक व्याप्ति, ग्रहण में मात्र सहयोगी है। किन्तु मेरा दृष्टि में तर्क का वास्तविक स्वरूप ऐमा नहीं है जैसा कि वात्स्यायन एवं जयंत आदि टीकाकारों ने मान लिया है। स्वयं डा. बारलिंगे ने भी तक स्वरूप के सम्बन्ध में उनके इस दृष्टिकोण को समुचित नहीं माना है। वे लिखते हैंIt appears to me that this particular function of Tarka has been overlooked by commentators of Nyāya sūtra and by many other Logicians-(A Modern Introduction to Indian Logic p. 123) सर्वप्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि तर्क का विषय वस्तु का गुणों का ज्ञान या विधेय ज्ञान नहीं है, अपितु कार्यकारणसम्बन्ध, अविनाभाव सम्बन्ध या आपादान सम्बन्ध का. ज्ञान है । 'यह पुरुष हो सकता' इस प्रकार के ज्ञान का तर्क से कोई लेना देना नहीं है । यह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान है । इस समस्त भ्रान्ति के पीछे न्याय सूत्र में दी गई तर्क की परि• भाषा को गलत व्याख्या है । न्याय सूत्र में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है -
अविज्ञातेत्वर्थे कारणोपपत्तितः तत्त्वज्ञानार्थम् ऊहा तर्कः । न्याय सूत्र १।१।४० वस्तुतः यहां तर्क का तात्पर्य मात्र अविज्ञात वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान के लिए की गई ऊहा (चौद्धिक कल्पना) से नहीं है। अपितु इसमें महत्त्वपूर्ण शब्द है-'कारणोपपत्तितः' वह कारण सम्बन्ध को युक्ति द्वारा होने वाला तत्त्वज्ञान है या दो तथ्यों के बीच कार्यकारणसम्बन्ध का ज्ञान है । जब तर्क कार्यकारण सम्बन्ध सूचित करता है तो फिर तर्क सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान है यह कहने का क्या आधार है ? उपपत्तितः शब्द सिद्ध होने (To. be proved) का सूचक है और जब कार्यकारणभाव सिद्ध हो गया तो फिर वह सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान कैसे कहा जा सकता है । दूसरे मूल सूत्र में कहीं ऐसा संकेत नहीं है कि जिससे यह कहा जा सके कि तर्क सम्भावनात्मक या अनिश्चित ज्ञान है। अतः नैयायिकों की यह धारणा कि तर्क सम्भावना मूलक ज्ञान है स्वतः खण्डित हो जाती है। साथ ही सूत्र में रखा गया 'तत्त्वज्ञानार्थम्' शब्द भी इस बात को सिद्ध करता है कि तर्क वस्तु के मूर्त या बाह्य स्वरूप का ज्ञान नहीं अपितु अमूर्त (Non-empirical ) स्वरूप का ज्ञान है। वह वस्तु-ज्ञान (Material knowledge) नहीं, तत्त्व-ज्ञान (Metaphysical knowledge) है।
जैसा कि हमने पूर्व में बताया तर्क का विषय अविनाभाव सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध, जाति-जाति सम्बन्ध, वर्ग सदस्यता सम्बन्ध आदि है । तर्क किसी धूम विशेष या अग्नि विशेष को नहीं अपितु धूम जाति और अग्नि जाति को अपना विषय बनाता है। क्योंकि धूम विशेष या अग्नि विशेष के हजारों उदाहरण भी व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इसके लिए विशेष का प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार सामान्य विशेष से पृथक् नहीं पाया जाता है । फिर व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध की सिद्धि सामान्य के ज्ञान से होगी, विशेष के ज्ञान से नहीं। तर्क सामान्य का ज्ञान है। न्याय दार्शनिक तर्क की इस प्रकृति को स्पष्ट नहीं कर सके। अतः व्याप्ति ग्रहण की इस समस्या को
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