Book Title: Sambodhi 1978 Vol 07
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 189
________________ जैनदर्शन में तर्कप्रमाण झाने हेतु उन्हें सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के नाम से प्रत्यक्ष के एक नये प्रकार की कल्पना करनी पड़ी। तुलनात्मक दृष्टि से जैन दर्शन का तर्क न्याय दर्शन के तर्क और सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के योग के बराबर है। मात्र यही नहीं जैन दार्शनिकों ने तर्क की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह इतनी व्यापक है कि उसमें व्याप्ति ग्रहण के इतर साधनों का भी समावेश हो जाता है। स्याद्वादमंजरी में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालाकलितमयसाधनसम्बन्धाद्यालम्वनपिदमस्मिन् सत्यव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तर्कापरपर्यायः यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति असो न भवेत्येवेति वा । स्याद्वादमारी २८. उपलम्भ अर्थात् सहचार दर्शन और अनुपलम्भ अर्थात् व्यभिचार अदर्शन से फलित. . साध्य साधन के त्रैकालिक सम्बन्ध आदि के ज्ञान का आधार तथा 'इसके होने पर ही यह होगा' जैसे यदि कोई धुआं है तो वह अग्नि के होने पर ही होता हैं और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता हैं इस आकार वाला जो (मानसिक) संवेदन है वह ऊह है, उसका ही दूसरा नाम तर्क है । सभी जैन दार्शनिकों ने तर्क की अपनी व्याख्याओं में उपलम्भ ओर अनुपक्तम्भ शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यतया उपलम्भ का अर्थ उपलब्ध होता हैं । लाक्षणिक दृष्टि से उपलम्भ का अर्थ है एक की उपलब्धि पर दूसरे की उपलब्ध अर्थात् अन्वय या सहचार और अनुपलम्भ का अर्थ है एक की अनुपलब्धि (अभाव) पर दूसरे की अनुपलब्धि (अभाव) अर्थात् व्यतिरेक । किन्तु अनुपलम्भ का एक दूसरा भी अर्थ है व्याघात के उदाहरण की अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन । इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार अन्वय, व्यतिरेक रूप सहचार दर्शन और व्यभिचार अदर्शन के निमित्त से तर्क के द्वारा व्याप्ति ज्ञान होता हैं। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों सहचार के ही रूप है । एक उपस्थिति में सहचार है और दूसग अनुपस्थिति में सहचार है। फिर भी ये तीनों सीधे व्याप्ति के ग्राहक नहीं हैं क्योंकि आनुभविक तथ्य प्रत्यक्ष के ही रूप हैं (जैन दार्शनिक अनुपलब्धि या अभाव का समावेश भी प्रत्यक्ष में ही करते हैं) अतः इनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं हैं। कोई भी अनुभविक पद्धति चाहे वह अन्वय व्यतिरेक हो या उनका ही मिला जुला.. कोई अन्य रूप हो, व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं कर सकती है। पाश्चात्य दार्शनिक ह्यम ने भी इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि अनुभववाद या प्रत्यक्ष के माध्यमसे कार्यकारण ज्ञान अर्थात् व्याप्तिज्ञान सम्भव नहीं है। प्रत्यक्षाधारित आगमन कभी भी सार्वकालिक और सार्वदेशिक सामान्य वाक्य की स्थापना नहीं कर सकता है । इसलिए जैन दार्शनिकों ने तर्क की परिभाषा में अन्वय व व्यतिरेक एवं व्यभिचार अदर्शन रूप प्रत्यक्ष के तथ्यों को केवल व्याप्ति का निमित्त या सहयोगी मात्र माना । उनके अनुसार वस्तुतः व्याप्ति का ग्रहण उम आकारिक (मानसिक) संवेदन से होता है जो त्रैकालिक साध्य-साधन सम्बन्ध को अपना विषय बनाकर यह निर्णय देता हैं कि 'इसके होने पर यह होगा' । तर्क की उपराक्त परिभाषा में महत्त्वपूर्ण शब्द हैं-'इति आकारं संवेदनं ऊहः तर्कापरपर्यायः।।.. . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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