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सागरमल जैन .. से= सम्भावना C= विधेय-सम्बन्ध या वर्ग-सदस्यता
= निषेध इस प्रकार प्रतीकात्मक दृष्टि से विचार करने पर तीनों की भिन्नता स्पष्ट हो जाती है । तर्क का संशय-निवर्तक स्वरूप :
न्याय दार्शनिक तर्क को संशय निवर्तक मानते हैं, किन्तु जैन दार्शनिकों ने स्पष्ट रूप से तर्क के इस स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला है । इसका कारण यह हो सकता है कि उनके अनुसार तर्क व्याप्ति ग्राहक है, अतः संशय का निवर्तन उसकी पूर्व अवस्था ही हो सकती है, स्वरूप नहीं । उन्होंने इस प्रक्रिया का अन्तर्भाव अनुपलम्भ में कर लिया है। सहचार दर्शन के पश्चात् जो विकल्प या संशय बनते हैं उनका निरसन व्यभिचार अदर्शन से हो जाता है। जहाँ तक न्याय दार्शनिकों का प्रश्न है वे स्पष्ट रूप से तर्क को 'क्वचिच्छङ्कानिवर्तक' कहते है अतः इस सम्बन्ध में विचार करना अपेक्षित है कि तर्क किस प्रकार के संशय को छिन्न करता है । यह स्पष्ट किया जा चुका है कि तर्क विधेय सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, अतः उसके द्वारा जिन संशयों को छिन्न किया जाना है वे इस रूप में नहीं होते कि यह स्तम्भ है या पुरुष ? अथवा यह स्वर स्त्री का है या पुरुष का ? अतः तर्क में संशय का प्रतीकात्मक स्वरूप त, दस (क, Vक.) ऐसा नहीं है। यहां संशय वस्तु के स्वरूप के बारे में न होकर आपादन, अबिनाभाव और कार्य-कारण आदि के सम्बन्धों के बारे में होते हैं। जब संशय सम्बन्ध के बारे में ही होता है उसका प्रतीकात्मक स्वरूप निम्न होगा (हेर सा ) Va(हे सा) । यहाँ विकल्प व्याप्ति के होने या नहीं होने के बारे में ही । होता है। इस संशय का निवर्तन तभी हो सकता है जब हेतु (धूम) साध्य (अग्नि) के अभाव में भी कहीं उपलब्ध हो । प्रत्यक्ष में ऐसा उदाहरण नहीं मिलने से अर्थात् व्यभिचार के अदर्शन से संशय छिन्न हो जाता है। क्योंकि यदि धूम और अग्नि में अविनाभाव नहीं होता तो अग्नि के अभाव में भी कहीं धूम उपलब्ध होता अर्थात् 'हे. सा' अथवा ' सा. हे' का उदाहरण मिलना था चूंकि ऐसा उदाहरण नहीं मिला है अत: उनमें ब्याप्ति है । न्याय दर्शन तर्क को केवल संशय छेदक मानता है किन्तु जैन दर्शन व्याप्ति ग्राहक के रूप में उसके निश्चयात्मक एवं विधायक कार्य को भी स्पष्ट कर देता है । जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि अनुपलब्धि अर्थात व्यभिचार अदर्शन से संदेह का निवर्तन हो जाने पर जो ज्ञान होगा वह निश्चयात्मक ही होगा । अतः यदि तर्क संशय निवर्तक है तो वह उसी समय व्याप्ति ग्राहक भी है । तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप
तर्क का कोई प्रतीकात्मक स्वरूप निश्चित कर पाना इसलिए कठिन है कि वह एक कमान (leap) की अवस्था है। विशेषों के ज्ञान के आधार पर हम सामान्य वाक्य की स्थापना अवश्य करते हैं। किन्तु इसका कोई नियम नहीं बताया जा सकता है, यह अन्तःप्रज्ञा की आश्वस्ति है । पाश्चात्य तर्क शास्त्र में जिस कार्य-कारण सम्बन्ध के शान के आधार पर या प्रकृति समरूपता के नियम के आधार पर सामान्य के ज्ञान का दावा किया पाताहै, वह भी आनुभविक आधार पर तो सिद्ध नहीं होता है। हम ने इसीलिए उसे एक विश्वास (Belief) मात्र कहा था, फिर भी यह न तो अन्ध विश्वास है
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