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जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन*
सागरमल जैन तर्क की प्रमाण के रूप में प्रतिस्थापना का परिप्रेक्ष्य
भारतीय दर्शनों में केवल जैन दर्शन की ही यह विशेषता है, कि वह प्रमाण विबेचन में तर्क को एक स्वतंत्र प्रमाण मानता है, फिर भी हमें इतना ध्यान अवश्य ही रखना होगा 'कि प्रमाण के रूप में तर्क को प्रतिस्थापना जैन न्याय की विकास यात्रा का एक परवर्ती चरण है।तत्वार्थसूत्र और श्वे. आगम नन्दिसूत्र में तो हमें ज्ञान और प्रमाण के बीच भी कोई विभाजक रेखा ही नहीं मिलती है, उनमें पांचों ज्ञानों को ही प्रमाण मान लिया गया है (मतिश्रुलावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् । तत् प्रमाणे-तत्त्वार्थ०१।९-१०) किन्तु श्वे० आगम भगवती, स्थानांग और अनुयोगद्वार में प्रमाणों का स्वतंत्र विवेचन उपलब्ध है । उनमें कहीं प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों की और कहों प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चार प्रमाणों की चर्चा मिलती है । सम्भवतः प्रमाणों का यह स्वतंत्र विवेचन आगम साहित्य में सर्व प्रथम अनुयोग द्वार में किया गया हो, क्योंकि भगवतो सूत्र में केवल उनका नाम निर्देश करके यह कह दिया गया है कि 'जहा अणुओगद्दारे' अर्थात् अनुयोगद्वार सूत्र के समान ही . . इन्हें यहां भी समझ लेना चाहिए । यद्यपि इन आधारों पर नन्दिसूत्र, अनुयोगद्वार, स्थानांग
और भगवती. के वर्तमान पाठों की पूर्वापरता के प्रश्न को एक नये सन्दर्भ में विचारा जा सकता है, किन्तु प्रस्तुत चर्चा के लिए यह आवश्यक नहीं है । एक विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि स्थानांग सूत्र में इनके लिए प्रमाण शब्द का प्रयोग न होकर हेतु और व्यव. साय शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुझे एसा लगता है कि यहां 'हेतु' का तात्पर्य प्रामाणिक ज्ञान के साधनों से और 'व्यवसाय' का तात्पर्य ज्ञानात्मक व्यापार के स्वरूप से है । जो कि अपने लाक्षणिक अर्थ में प्रमाण चर्चा से भिन्न नहीं है। ध्यान देने योग्य दूसरी बात यह है कि स्थानांग सूत्र में व्यवसाय के अन्तर्गत केवल तीन प्रमाणों की और हेतु के अन्तर्गत चार प्रमाणों को चर्चा उपलब्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन न्याय में प्रमाणर्चा के प्रसंग में भी आगम युग तक तके को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया था। यद्यपि इसकी सम्भावना के बीज आगम साहित्य में तथा तत्त्वार्थसूत्र में अवश्य ही उपस्थित थे। क्योंकि नन्दीसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गगा, गवेषगा, स्मृति, संज्ञा, प्रज्ञा और मति को पर्यायवाची मान लिया गया था। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य में भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिरोध को एक ही अर्थ के वाचक माना था । मेरी दृष्टि में यहां इन्हें पर्यायवाची या एकार्थवाच कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि ये सब मतिज्ञान के ही विभिन्न रूप है। उमास्वाति के तत्त्वार्थ भाष्य में ईहा के पर्याय के रूप में भी तर्क और ऊह इन दोनों शब्दों का सष्ट उल्ले व है। क्योंकि ईहा अवग्रहीत अर्थ (पदार्थ) के विशेष स्वरूप * ओल इन्डिया आरिएण्टल कान्फरन्स, २९ वें पूना अधिवेशन में पठित । १-से किं तं पमाणं १ पमाणे व उब्धिहे पण्णत्ते तं जहा पन्चाखे अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे,
जहा अणुओगद्दारे । -भगवती ५।४।१९१-१९२ २-तिवहे ववसाए पण्णत्ते तं जहा-पच्चक्खे, पच्चइए, अनुगामिए । स्थानांग १८५ ३-अहवा हेउ चउविहे पण्णत्ते तं जहा पच्चक्खं, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे । स्थानांग ३३८ ४- मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम-तत्त्वार्थ १।१३॥ ५- तत्त्वार्थभाष्य १११५
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