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सागरमल जैन सभी जैन तार्किकों ने परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान ओर आगम ऐसे पांच भेद किये है, केवल एक अपवाद है न्यायविनिश्चय के टकाकार वादीराज सूरि । उन्होंने पहले परोक्ष के दो भेद किये- १. अनुमान और २. आगम, और फिर अनुमान के मुख्य और गौणं ऐसे दो भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का अन्तर्भाव गौण अनुमान में किया है। जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत इस प्रमाण-योजना का अतीन्द्रिय आत्मिक प्रत्यक्ष न्याय दर्शन में योगज प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकृत है । जहाँ तक सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष या इन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रश्न है उसे सभी भारतीय दर्शनों ने प्रमाण माना है. चाहे उसके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में थोड़ा मतभेद रहा हो। परोक्ष प्रमाणों में अनुमान और आगम को भी अधिकांश भारतीय दर्शनों ने प्रमाण की कोटि में माना है । प्रत्यभिज्ञा को भी न्याय दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण के एक भेद के रूप में स्वीकार करता है, मात्र अन्तर यही है कि जहाँ जैन दार्शनिक उसे परोक्ष प्रमाण का भेद मानते हैं, वहाँ न्याय दर्शन उसे प्रत्यक्ष प्रमाण का एक भेद मानता है । यद्यपि यह अन्तर अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि अकलंक ने तो उसे शब्दसंसर्ग से रहित होने पर सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मान ही लिया था । अपने स्वरूप की दृष्टि से भी प्रत्यभिज्ञान में ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों का योग होता है अतः वह आंशिक रूप से प्रत्यक्ष और आंशिक रूप से परोक्ष सिद्ध होता है । इस प्रकार हम देखते है कि जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों में केवल स्मृति और तर्क ही ऐसे है जिन्हें अन्य दर्शनों में प्रमाण की कोटि में वर्गीकृत नहीं किया मया है । न्याय दर्शन प्रमा और अपमा के वर्गीकरण में स्मृति और तर्क दोनों को ही अप्रमा अथवा अयथार्थ ज्ञान मानता है । यद्यपि अन्नभट्ट का वर्गीकरण थोड़ा भिन्न है । वे पहले ज्ञान को स्मृति और अनुभव इन दो भागों में वर्गीकृत करते हैं और बाद में अनुभव को यथार्थ और अयथार्थ इन दो भागों में बाँट देते हैं । इस प्रकार वे स्पष्ट रूप से स्मृति को अयमर्थ ज्ञान नहीं मानते है, तथापि जहाँ तक तर्क का प्रश्न है वे भी उसे अयथार्थ ज्ञान में ही वर्गीकृत करते हैं । यद्यपि वे उसे संशय और विपर्यय से भिन्न अवश्य मानते है । उन्होंने अयथार्थ ज्ञान के तीन भेद किये हैं-१. संशय २. विपर्यय और ३. तर्क । इस प्रकार हम देखते है कि न्याय दर्शन तर्क को प्रमाण की कोटि में नहीं रखता है । यद्यपि यह स्वतंत्र प्रश्न है कि क्या संशय, विपर्यय और तर्क एक ही स्तर के ज्ञान है या भिन्न भिन्न स्तर के ज्ञान है ? क्या अयथार्थ ज्ञान का अर्थ भ्रमयुक्त या मिथ्या ज्ञान है ? चिन पर आगे विचार करेंगे । चाहे न्याय दर्शन ने तर्क को प्रमाण नहीं माना हो फिर भी वह अपने षोडश पदार्थों में तर्क को एक स्वतंत्र स्थान तो देता ही है तथा व्याप्ति स्थापना में तर्क को उपयोगिता को भी निर्विवाद रूप से स्वीकार करता है । यद्यपि भारतीय दर्शनों में सांख्य-योग तथा मीमांसा दर्शन तर्क को 'प्रमाण' मानते हैं किन्तु उनके तर्क को प्रमाण मानने के सन्दर्भ बिलकुल भिन्न है । वह सन्दर्भ ज्ञान मीमांसा के न होकर भाषाशास्त्रीय एवं कर्मकाण्डीय है । ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में तो वे भी अपनी अपनी प्रमाणों की मान्यता में तर्क को कोई स्वतंत्र स्थान नहीं देते हैं। मात्र यही नहीं, मीमांसा दर्शन तो व्याप्ति निश्चय में भी तर्क की उपादेयता को स्वीकार नहीं करता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतीय दर्शन में एक मात्र जैन दर्शन ही ऐसा दर्शन है जो तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण की कोटि
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