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जैन कवि का कुमारसम्भव
सत्यव्रत मेघदूत की तरह कालिदास के कुमारसम्भव ने किसी अभिनव साहित्यविद्या का प्रवर्तन तो नहीं किया किन्तु उक्त काव्य से प्रेरणा ग्रहण कर जिन तीन-चार कुमारसम्भव संर्शक कृतियों की रचना हुई है, उनमें जैन कवि जयशेखरसूरी का कुमारसम्भव अपने काव्यात्मक गुणों तथा महाकाव्य-परम्परा के सम्यक निर्वाह के कारण सम्मानित पद का अधिकारी है। कालिदास कृत कुमारसम्भव की भाँति जैन कुमारसम्भव' का उद्देश्य कुमार (भरत) के जन्म का वर्णन करना है । लेकिन जैसे कुमारसम्भव के प्रामाणिक अंश (प्रथम आठ सर्ग) में कार्तिकेय का जन्म वर्णित नहीं है, वैसे ही जैन कवि के महाकाव्य में भरतकुमार के जन्म का कहीं उल्लेख नहीं हुआ है । और इस तरह दोनों काव्यों के शीर्षक उनके प्रतिपादित विषय पर पूर्णतया चरितार्थ नहीं होते । परन्तु जहाँ कालिदास ने अष्टम सर्ग में शिव-पार्वती के संभोग के द्वारा कुमार कार्तिकेय के भावी जन्म की व्यंजना कर काव्य को समाप्त कर दिया है, वहाँ जैन कुमारसम्भव में सुमंगला के गर्भाधान का निर्देश करने के पश्चात् भी (६७४) काव्य को पांच अतिरिक्त सर्गो में घसीटा गया है । यह अनावश्यक विस्तार कवि की वर्णनप्रियता के अनुरूप अवश्य है पर इससे काव्य की अन्विति नष्ट हो गयी है, कथा का विकासक्रम विश्रंखलित हो गया है और काव्य का अन्त अतीव आकस्मिक ढंग से हुआ है। कविपरिचय तथा रचनाकाल
कुमारसम्भव से इसके कर्ता जयशेखर सूरि के जीवनवृत्त अथवा मुनि-परम्परा की कोई सूचना प्राप्त नहीं । काव्य का रचनाकाल निश्चित करने के लिये भी इससे कोई सूत्र हस्तगत नहीं होता । काव्य में प्रान्त-प्रशस्ति के अभाव का यह दु:खद परिणाम है।
अन्य स्रोतों से ज्ञात होता है कि जयशेखर अंचलगच्छ के छप्पनवें पट्टधर महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य, बहुश्रुत विद्वान् तथा प्रतिभाशाली कवि थे । संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में निर्मित उनकी विभिन्न कृतियाँ उनकी विद्वत्ता तथा कवित्व की प्रतीक हैं । जयशेखर की उपदेशचिन्तामणि की रचना सम्वत् १४३९ में हुई थी। प्रबोधचिन्तामणि तथा धम्मिलचरित एक ही वर्ष सम्वत् १४६२, में लिखे गये । कुमारसम्भव इन तीनों के बाद की रचना है। अयशेखर की यही चार कृतियाँ प्रख्यात है । कुमारसम्भव उनकी सर्वोत्तम रचना है, उनकी कीर्ति का आधारस्तम्भ !
जयशेखर के शिष्य धर्मशेखर ने कुमारसम्भव पर टीका सम्वत् १४८२ में अजमेर मण्डल के पद्यर (१) नगर में लिखी थी, यह टीका-प्रशस्ति से स्पष्ट है ।
देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये पद्यरे पुरप्रवरे ।
नयनवसुवाधिचन्द्र वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयम् ।। अतः सं. १४८२ कुमारसम्भव के रचनाकाल की उत्तरी सीमा निश्चित है । धम्मिलचरित की पश्चाद्वर्ती रचना होने के कारण इसका प्रणयन स्पष्टतः सम्वत् १४६२ के उपरांत
१. आर्यरक्षित पुस्तकोधार संस्था, जामनगर से प्रकाशित, सम्वत २०.. २. हीरालाल कापड़िया : जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, भाग २, पृ० १६३.
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