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भगवान महावीर का उपदेश और आधुनिक समाज दलसुखभाई मालवणिया
आज के संदर्भ में भगवान महावीर के विचारों की संगति के विषय में विचार करने से पहले यह जरूरी है कि हम जानें कि भगवान महावीर के विचार क्या थे ? हमारे समक्ष ई० सन् के पूर्व से आज तक जो जैन साहित्य उपस्थित है उसमें से कितना भगवान महावीर के मौलिक विचार प्रकट करता है इसका निश्चय करना अत्यन्त जरूरी है। वह इसलिए कि जो कुछ प्राचीन या मध्यकालीन जैनाचार्यो ने लिखा है वह सब भगवान के उपदेश को यथार्थ रूप में व्यक्त करता है यह मानकर ही प्रायः आधुनिक भारतीय लेखक भगवान महावीर के विचारों को उपस्थित करते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि जैनों के पारंपरिक साहित्य में कालक्रम से कई नये विचार प्रविष्ट हुए हैं। ऐसा यदि न हो तो विकास की संभावना ही समाप्त हो जाती है । अतएव हमें भगवान महावीर के मौलिक विचार जानने के लिए प्राचीनतम जैन साहित्य की ही तलाश करनी होगी । और उसमें जो कुछ मिले उसी का परीक्षण करके भगवान महावीर के विचारों का विवरण करना चाहिये । अभी तक ऐसा प्रायः नहीं हुआ है । यह हमारी परंपरा के प्रति अतिभक्ति ही है जो हमें मूल तक जाने से रोकती है। किन्तु जब विद्वान् एकत्र हों तो इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना अत्यंत जरूरी है । मैंने इस प्रश्न को आपके समक्ष इसलिए रखा है कि अब ऐसा समय आ गया है जब हम अंध-भक्ति को छोड़ कर विवेक से काम लें । और संशोधन के क्षेत्र में सर्वत्र जो प्रक्रिया अपनाई जाती है। 1 उसी प्रक्रिया का हम इस विषय में भी प्रयोग करें। विदेशी विद्वानों ने श्वेताम्बरों के आगमों का विशेष अध्ययन करने का जो प्रयत्न किया उसके पीछे भी यही दृष्टि काम कर रही थी । किन्तु हमने इस ओर पूरा ध्यान न हेकर उत्तरकालीन जैनसाहित्य के अध्ययन के आधार पर ही भगवान महावीर के विचारों को परखना चाहा और यही एक ऐसी गलती हुई है जो हमें मौलिक विचारों से पृथक् रखती है वहाँ तक पहुँचने नहीं देती। अमेरिका में हुई एक संगोष्ठी में मेरे मित्र डा० पदमनाभ जैनी ने पश्चिम के विद्वानों ने दिसम्बर साहित्य के अध्ययन के प्रति उपेक्षा की है इस बात का खेद व्यक्त किया है किन्तु वे भूल जाते हैं कि पश्चिम के विद्वानों ने जितना वेद और तत्संबंधी साहित्य के अध्ययन की ओर ध्यान दिया उतना बाद में विकसित भारतीय नाना दर्शनों के विषय में नहीं दिया। कारण यही है कि सर्व प्रथम यह जानना जरूरी होता है कि तत्तत् विषय में प्राचीनतम विचारधारा क्या थी। उसके जाने बिना विकासक्रम का अध्ययन हो ही नही सकता है। यही कारण है कि विदेशी विद्वानोंने जैनों के साहित्य में प्राचीनतम माने जाने वाले आगमों का अध्ययन किया और उसकी संपूर्ति होने पर ही आगे के अध्ययन की संभावना बढ़ सकती है ऐसा माना । अतएव डा० जैनी का खेद व्यक्त करना उचित नहीं है । आशा है कि स्वयं डा० जैनी ही इस कमी को दूर करेंगे।
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श्वेताम्बर संमत आगमों में भी सभी एक काल की रचना नहीं है कि विदेशी विद्वानों ने उन आगमों में से उन्हीं आगमों का विशेष उन्हे काल की दष्टि से प्राचीनतम जँचे । अतएव हमारा भी यही कर्तव्य
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हो जाता है कि
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