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सूत्र ७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२९ अर्थात् औपशमिकसे क्षायोपशमिक और क्षायोपशमिकसे क्षायिककी विशुद्धि-निर्मलता अधिक हुआ करती है।
___ भावार्थ-जीवादिक तत्त्वोंका स्वरूप विस्तृत रूपसे जाननेके लिये ये निर्देशादिक छह अनुयोगद्वार बताये हैं । अतएव यद्यपि यहाँपर केवल सम्यग्दर्शन की अपेक्षा लेकर ही ये घटित करके बताये हैं, परन्तु इनको सभी विषयोंमें आगमके अनुसार घटित कर लेना चाहिये।
• अनेक मतवालोंने वस्तुका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रकारसे माना है, कोई वस्तुको शन्यरूप मानते हैं, कोई धर्मरहित मानते हैं, कोई नित्य मानते हैं, कोई अनित्य मानते हैं, कोई विज्ञा. नरूप मानते हैं, कोई ब्रह्मरूप मानते हैं, और कोई शब्दरूप ही मानते हैं, इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाएं प्रचलित हैं, जिनसे वस्तुके वास्तविक स्वरूपका बोध नहीं होता, अतएव उसके बतानेकी आवश्यकता है । यही पहले अनयोग-निर्देशका कार्य है।
किसी किसी का कहना है, कि वस्तुमें सम्बन्धकी कल्पना करना सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि सम्बन्ध दो वस्तुओंमें हुआ करता है । सो यदि शशविषाण और अश्वविषाणकी तरह वह दो असिद्ध वस्तुओंका माना जायगा, तो सर्वथा अयुक्त है, और यदि बन्ध्या तथा उसके पुत्रकी तरह एक सिद्ध और एक असिद्ध वस्तुका वह माना जायगा, तो वह भी बन नहीं सकता । इसी प्रकार यदि दो सिद्ध वस्तुओंका सम्बन्ध माना जायगा तो वह भी अयुक्त ही है। क्योंकि सम्बन्ध परतन्त्रताकी अपेक्षा रखता है, और सभी वस्तुएं अपने अपने स्वरूपमें स्वतन्त्र हैं । यदि वस्तुस्वरूप परतन्त्र माना जायगा, तो अनेक प्रकारकी बाधाएं उपस्थित होंगी। इत्यादि । सो यह कहना सर्वथा अयुक्त है, क्योंकि वस्तुके अन्दर कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद स्याद्वादसिद्धान्तके द्वारा सुसिद्ध है, और इसी लिये स्वस्वामी आदिके सम्बन्ध भी सुघट ही है । इसके विना वस्तुका स्वरूप भी स्थिर नहीं रह सकता । अतएव इस तरहके सम्बन्धोंका और उनके द्वारा वस्तुका बोध कराना दूसरे अनुयोग-स्वामित्वका कार्य है।
कोई वादी कह सकता है, कि वस्तुका स्वरूप स्वयं ही सिद्ध है। क्योंकि सत्का विनाश नहीं हो सकता, और असत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि वस्तुको परतः सिद्ध माना जायगा तो सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति भी माननी पड़ेगी। अतएव जब वस्तु स्वयंसिद्ध ही है तो उसकी उत्पत्तिके निमित्तोंको बतानेकी क्या आवश्यकता है ? सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है । यदि वस्तुको सर्वथा नित्य ही माना जायगा, तो संसारके सम्पूर्ण व्यवहारोंका लोप हो जायगा, और संसार मोक्षका भेद तथा मोक्ष प्राप्तिके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ ही ठहरेगा । अतएव वस्तुका स्वरूप कथंचित् अनित्य भी है। और इसीलिये उसकी पर्यायोंके कारणोंको बताना भी आवश्यक है। कौनसी कौनसी पर्याय किन किन कारणोंसे उत्पन्न होती है, यह बताना ही तीसरे अनुयोग-साधनका प्रयोजन है ।
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