Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 439
________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्र [ नवमोऽध्यायः भाष्यम् – रसपरित्यागोऽनेकविधः । तद्यथा - मांसमधुनवनीतादीनां मद्यरसविकृतीनां - प्रत्याख्यानं विरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च ॥ ४ ॥ -३१४ अर्थ — चौथे बाह्य तपका नाम रसपरित्याग है । यह भी अनेक प्रकारसे हुआ करता है । जैसे कि मद्य मांस मधु और नवनीत - मक्खन आदि जो जो रसविकृति हैं, उनका परित्याग करके आहार ग्रहण करना । अथवा विरस - नीरस रूक्ष आदि पदार्थ आहार में ग्रहण करना इसको रसपरित्याग नामका तप कहते हैं । भावार्थ - रसविकृतियों का अथवा एक दो आदि कुछ रसोंका यद्वा समस्त रसोंका त्याग करके आहार ग्रहण करनेको रसपरित्याग तप कहते हैं । रस शब्द से कहीं पर तो रसनाइन्द्रियके पाँच विषय ग्रहण किये जाते हैं । यथा - मधुर अम्ल कटुकषाय तिक्त । अथवा कहीं पर घी दूध दही शक्कर तेल नमक ये छह चीजें ली जाती हैं । इनके यथा योग्य त्यागकी अपेक्षा अथवा मद्यादि विकृतियोंके त्यागकी अपेक्षा से रसपरित्याग तप अनेक प्रकारका है ॥ ४ ॥ भाष्यम् - विविक्तशय्यासनता नाम एकान्तेऽनाबाधेऽसंसक्ते स्त्रीपशुषण्ढकविवर्जिते शून्यागारदेवकुलसभापर्वतगुहादीनामन्यतमे समाध्यर्थं संलीनता ॥ ५ ॥ अर्थ - एकान्त और हरप्रकारकी बाधाओं से शून्य तथा संसर्ग रहित और स्त्री पशु नपुंसकोंसे वर्जित शून्यगृह देवालय विमोचित - छोड़े हुए स्थान कुलपर्वत गुहा मन्दिर आदि से किसी भी स्थान में समाधि - सिद्धि के लिये संलीनता होनेको विविक्तशय्यासनता कहते हैं । भावार्थ - - एकान्त में शयनासन करने को विविक्तशय्यासनता कहते हैं। यदि यह समाधिसिद्धि के लिये किया जाय, तो समीचीन यथार्थ तप कहा जासकता है, अन्यथा नहीं । जहाँपर ध्यान धारणा या समाधि की जाय, वह स्थान एकान्त अनाबाध और असंसक्त होना चाहिये ॥ ५ ॥ भाष्यम् - कायक्लेशोऽनेकविधः । तद्यथा - स्थानवीरासनोत्कडुकासनैकपार्श्वदण्डायतरायनातापनाप्रावृतादीनि सम्यक्प्रयुक्तानि वाह्यं तपः । अस्मातषड्विधादपि बाह्यात्तपसः सङ्गत्यागशरीरलाघवेन्द्रियविजय संयमरक्षणकर्मनिर्जरा भवन्ति ॥ ६ ॥ अर्थ - कायक्लेश तप भी अनेक प्रकारका होता है । जैसे कि स्थान और वीरासन उत्कट आदि आसन तथा एक पार्श्व या दण्डाशयन एवं आतापनयोग या अप्रावृतके धारण करनेको और उसका भले प्रकार उपयोग करनेको समीचीन कायक्लेश नामका बाह्य तप कहते हैं । I भावार्थ -- जिससे समीचीनतया शररिको क्लेश हो, उसको कायक्लेश नामका तप कहते हैं । वह अनेक प्रकारसे हुआ करता है । जैसे कि स्थानके द्वारा, जहाँपर शरीरको कष्ट होता हो, ऐसी जगहपर रहना या खड़े रहना आदि । अथवा वीरासन आदि आसन से बैठकर उसी तरह बैठे रहना, और उसके क्लेशको सहन करना, रात्रिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498