Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 449
________________ ४२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः भावार्थ-अमनोज्ञ पदार्थके संयोगके विषयमें उसके वियोगकी चिन्ता दो प्रकारसे हो सकती है, एक तो उसका संयोग हो जानेपर और दूसरा उसका संयोग होनेके पूर्वमें । संयोग हो जानेपर तो इसका कत्र वियोग हो, ऐसा चिन्तवन हुआ करता है, और संयोग होनेके पहले कहीं अमुक अनिष्ट वस्तुका संयोग न हो जाय, ऐसा चिन्तवन हुआ करता है । - दूसरे आर्तध्यानका स्वरूप बताते हैं सूत्र-वेदनायाश्च ॥ ३२॥ भाष्यम्--वेदनायाश्चामनोज्ञायाः संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः आर्तमिति । किं चान्यत्___अर्थ-अमनोज्ञ वेदनाका संयोग हो जानेपर उसके वियोगके लिये जो पुनः पुनः विचार या चिन्तवन हुआ करता है, उसको दूसरा वेदना नामका आर्तध्यान कहते हैं । अर्थात् वेदना-पीड़ासे छूटनेके लिये जो चित्तकी एकाग्रता होती है, उसका नाम पीडा-चिन्तन आर्तध्यान है। तीसरे आर्तध्यानका स्वरूप इस प्रकार है कि . सूत्र-विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥ __ भाष्यम्--मनोज्ञानां विषयाणां मनोज्ञायाश्च वेदनाया विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार आर्तम् । किं चान्यत् ____ अर्थ-जो मनका हरण करनेवाले हैं, ऐसे प्रिय इष्ट रमणीय विषयोंका संयोग होकर वियोग हो जानेपर अथवा संयोग न होनेपर तथा इसी प्रकारकी मनोज्ञ वेदनाका भी वियोग होनेपर उसके संयोगके लिये जो पुनः पुनः विचार करना, अथवा उसीकी तरफ चित्तका संलग्न रहना, इसको इष्टवियोग नामका तीसरा आर्तध्यान कहते हैं । चौथे आर्तध्यानका स्वरूप बतानेके लिये सत्र कहते हैं सूत्र-निदानं च ॥ ३४ ॥ भाष्यम्-कामोपहतचित्तानां पुनर्भवविषयसुखगृद्धानां निदानमार्तध्यानं भवति॥ अर्थ-जिनका चित्त कामदेवकी वासनासे उपहत-दूषित या पीड़ित हो रहा है, फिर भी जिनके संसारके विषयसुखोंकी गृद्धि-तृष्णा लगी हुई है, ऐसे जीवोंके निदान नामका चौथा आर्तध्यान होता है। भावार्थ-जिनका मन अभीतक काम-भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ है, ऐसे जीव धारण किये हुए व्रत चारित्रके फलस्वरूप संसारिक विषयोंको ही चाहते हैं, अथवा उनके लिये ही सेयमको धारण किया करते हैं। ऐसे जीवोंके यह भावना हुआ करती है, कि मुझको इस चारित्रके प्रसादसे परलोकमें अमुक फल प्राप्त हो । ऐसे संकल्पको ही निदानआर्तध्यान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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