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सूत्र ७ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
करता है, तो वह लोकके अन्ततक ही क्यों करता है, लोकके ऊपर भी उसकी गति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि- लोकके ऊपर धर्मास्तिकायका अभाव है । पाँच जो अस्तिकाय बताये हैं, उनमेंसे धर्मास्तिकायका यह कार्य है, कि वह जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्यकी गतिमें सहायता पहुँचानेका उपकार करे, किन्तु वह लोकके ऊपर नहीं रहता । अतएव गमन करने के निमित्तकारणका अभाव होने से लोकान्तसे भी परे गति नहीं होती । जैसे कि जलमें मृत्तिका - मिट्टी के भारसे डूबी हुई तूंची मृत्तिकाके हट जानेपर जलके ऊपरके तलभाग तक ही गमन करती है, उससे भी ऊपर गमन नहीं कर सकती, क्योंकि उससे भी ऊपरको जाने के लिये निमित्त कारण जलका अभाव है। मुक्त - जीवकी गति अधो दिशा की तरफ और तिर्यग् दिशा की तरफ नहीं होती, यह बात पहले ही बता चुके हैं । किन्तु उसकी गति श्रेणिबद्ध लोकान्तप्रापिणी ही हुआ करती है, और इसी लिये वह लोकके अन्तमें जाकर ठहर जाता है, तथा निःक्रिय बना रहता है ।
भावार्थ - यद्यपि मुक्त - जीवका स्वभाव ऊर्ध्व-गमन करनेका है, और इसलिये लोकके परे भी उसको गमन करना चाहिये, यह ठीक है, फिर भी कार्यकी सिद्धि विना बाह्य निमित्तकारण नहीं हो सकती, इस सिद्धान्तके अनुसार जहाँतक गमन करनेका बाह्य निमित्त धर्मास्तिकायका सद्भाव पाया जाता है, वहींतक मुक्त - जीवकी गति होती है, उससे परे नहीं हो सकती, और धर्मद्रव्यका अस्तित्व लोकके अन्ततक ही रहा करता है ।
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इस प्रकार मुक्तिके कारणोंको पाकर जो मुक्त हो जाते हैं, वे सभी जीव स्वरूपकी अपेक्षा समान हैं अथवा असमान ? इस बात को बतानेके लिये आगे सूत्र कहते हैं— सूत्र - क्षेत्र कालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्यात्पबहुत्वतः साध्याः ॥ ७ ॥
भाष्यम् - क्षेत्रं कालः गतिः लिङ्गं तीर्थं चारित्रं प्रत्येकबुद्धबोधितः ज्ञानमवगाहना अन्तरं संख्या अल्पबहुत्वमित्येतानि द्वादशानुयोगद्वाराणि सिद्धस्य भवन्ति । एभिः सिद्धः साध्योऽनुगम्यश्चिन्त्यो व्याख्येय इत्येकार्थत्वम् । तत्रपूर्वभावप्रज्ञापनीयः प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयश्च द्वौ नयौ भवतः । तत्कृतोऽनुयोगविशेषः । तद्यथा
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अर्थ — क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चरित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या, और अल्पबहुत्व, इस प्रकार मुक्त - जीव के लिये बारह अनुयोगद्वार माने हैं । इनके द्वारा मुक्त - जीव साध्य अनुगम्य चिन्त्य और व्याख्येय कहा जाता है । ये सभी शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । इनमें भी दो नय प्रवृत्त हुआ करते हैं — पूर्वभावप्रज्ञापनीय और प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीय । इनके द्वारा अनुयोगों में विशेषता सिद्ध होती है । जोकि इस प्रकार से है । -
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