Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 476
________________ सूत्र ७ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ज्ञानम् - अत्रप्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य केवली सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयो द्विविधः । - अनन्तरपश्चात्कृतिकञ्च परम्परपञ्चास्कृतिकश्च अव्यञ्जिते च व्यञ्जिते च । अव्यजिते द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां सिध्यति । त्रिभिश्चतुर्भिरिति । व्यञ्जिते द्वाभ्यां मतिश्रुताभ्यां । त्रिभिर्मतिश्रुतावधिभिर्मतिश्रुतमनः पर्यायैर्वा । चतुर्भिर्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायैर्वा ॥ 1 अर्थ - प्रत्येक बुद्धबोधित अनुयोगकी अपेक्षा से भी सिद्धोंकी विशेषताका व्याख्यान किया जा सकता है । इस अनुयोगकी व्याख्या चार प्रकारसे हो सकती है । यथा - एकतो स्वयं बुद्धसिद्ध दूसरे बुद्धबोधितसिद्ध । इनमें भी प्रत्येकके दो दो भेद हैं। स्वयं बुद्धसिद्ध के दो भेद इस प्रकार हैं - एक तो अर्हन् तीर्थकर और दूसरे प्रत्येकबुद्धसिद्ध । तीसरा और चौथा भेद बुद्धबोधितसिद्धका है, जोकि इस प्रकार है - परबोधकसिद्ध और स्वेष्टकारिसिद्ध । ४५१ भावार्थ - जिनको किसी अन्यसे मोक्षमार्गका ज्ञान उपदेश द्वारा प्राप्त नहीं हुआ करता - स्वयं ही उस विषय के ज्ञाता रहा करते हैं, उनको प्रत्येकबुद्ध कहते हैं, और जिनको परोपदेशके द्वारा मोक्ष-मार्गका ज्ञान प्राप्त होता है, उनको बोधितसिद्ध कहते हैं । जिनकी समवसरण रचना होती है, उनको तीर्थकर और जिनकी केवल गंधकुटी ही होती है, उनको सामान्य केवली कहा करते हैं । केवलज्ञान प्राप्त होनेके अनन्तर जो दूसरोंको मोक्ष - मार्गका उपदेश देते हैं, उनको परबोधकसिद्ध और जो उपदेशमें प्रवृत्त न होकर ही निर्वाणको प्राप्त कर लिया करते हैं, उनको स्वेष्टकारिसिद्ध कहते हैं । इस प्रकार पूर्वभावप्रज्ञापनकी अपेक्षासे सिद्धों में विशेषताका वर्णन किया जा सकता है, अन्यथा स्वरूपकी अपेक्षा सत्र सिद्ध समान हैं । ज्ञान- इस अनुयोगकी अपेक्षा लेनेपर भी प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयनयसे जो केवलज्ञानके धारक हैं, वे ही सिद्धिको प्राप्त किया करते हैं । पूर्वभावप्रज्ञापनीयनय दो प्रकार है - अनन्तरपश्चात्कृतिक और परम्परपश्चात्कृतिक । इनमें भी पहले कहे अनुसार अव्यञ्जित और व्यञ्जित भेद समझ लेने चाहिये । अन्यञ्जित पक्षमें दो ज्ञानोंके द्वारा अथवा तीन ज्ञानों के द्वारा यद्वा चार ज्ञानोंके द्वारा सिद्धि हुआ करती है । व्यञ्जित पक्षमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानइन दो ज्ञानों के द्वारा, और मतिश्रुत अवधि अथवा मतिश्रुत मन:पर्यय इन तीन ज्ञानोंके द्वारा, तथा मति श्रुत अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानोंके द्वारा भी सिद्धि हुआ करती है । 1 भावार्थ - वर्तमान में सभी सिद्ध केवलज्ञानके ही धारक हैं । अतएव उसीके द्वारा उनकी सिद्धि कही जा सकती है । किन्तु पूर्वभावकी अपेक्षासे चार क्षायोपशमिक ज्ञानों में से यथासम्भव ज्ञानोंके धारक सिद्धिको प्राप्त किया करते हैं । क्षायोपशमिकज्ञान एक कालमें एक जीवके दोसे लेकर चार तक पाये जा सकते हैं । जैसा कि ऊपर भी बताया जा चुका है । भाष्यम् - अवगाहना - कः कस्यां शरीरावगाहनायां वर्तमानः सिध्यति । अवगाहना द्विविधा उत्कृष्टा जघन्या च । उत्कृष्टा पञ्चधनुःशतानि धनुःपृथक्त्वेनाभ्यधिकानि । जघन्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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