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प्रशस्ति । सभाष्यतत्त्वाधिगमसूत्रम् ।
४७१ सकते हैं, वे ही उनको प्राप्त हुआ करते हैं, और इन गुणोंसे युक्त कुलीन पुरुषोंके वंशमें ही वे
अवतार-धारण किया करते हैं। इस तरहके मनुष्य जन्मको पाकर वे फिरसे सम्यग्दर्शन आदि विशुद्ध-निर्मल-निर्दोष रत्नत्रयको प्राप्त हुआ करते हैं । इसी क्रमसे जिसमें कि पुण्यकर्मके फलका उपभोग साथ लगा हुआ है, और इसी लिये जो सुख परम्पराओंसे युक्त है, ऐसे ज्यादेसे ज्यादे तीन बार जन्म-धारण करके अन्तमें वह जीव सिद्ध-अवस्था-निर्वाण पदको हुआ करता है।
प्रशस्तिःवाचकमुख्यस्य शिवश्रियः, प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि। कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ॥ ३ ॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुकमेणागतं समुपधार्य । दुःखार्तं च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसंग्रहे दशमोऽध्यायः समाप्तः ।
ग्रन्थ समाप्तम् ।
अर्थ-प्रकाशरूप है, यंश जिनका-जिनकी कीर्ति जगद्विश्रुत है, ऐसे शिवश्री नामक वाचकमुख्यके प्रशिष्य और एकादशाङ्गवेत्ता-ग्यारहअङ्गके ज्ञानको धारण करनेवाले श्री घोषनन्दिश्रमणके शिष्य तथा प्रसिद्ध है कीर्ति जिनकी और जो महावाचकक्षमण श्रीमुण्डपादके शिष्य थे, उन श्रीमूलनामक वाचकाचार्यके वाचनाकी अपेक्षा शिष्य, न्यग्रोधिका स्थानमें उत्पन्न होनेवाले कुसुम-पटना नामक श्रेष्ठ नगरमें विहार करते हुए, कौभीषणी गोत्रोत्पन्न स्वाति पिता और वात्सी माताके पुत्र नागर वाचक शाखामें उत्पन्न हुए श्रीउमास्वातिने भलेप्रकार गुरु
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