Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 472
________________ सूत्र ७ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भावार्थ-प्रत्युत्पन्नभाव वर्तमान अवस्थाको दिखाता है, जिस क्षणमें जीव सिद्ध होता है, उसी क्षणमें वह सिद्धिक्षेत्रमें जा पहुँचता है, अतएव वर्तमान भावकी अपेक्षा यदि ली जाय, तो सिद्धिक्षेत्रसे ही सिद्धि होती है । यदि पूर्वभावकी अपेक्षा लेकर कहा जाय, तो कह सकते हैं, कि जन्मकी अपेक्षा पंद्रह कर्मभमियोंसे और संहरणकी अपेक्षा मनुष्य-क्षेत्रमात्रसे निर्वाण हुआ करता है । पंद्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुआ योग्य मनुष्य निर्वाणको प्राप्त कर सकता है, और अबतक जितने भी सिद्ध हुए हैं, वे सब ऐसे ही थे। किन्तु संहरणके द्वारा मनुष्य-क्षेत्रमेंसे किसी भी भागसे सिद्ध हो सकते हैं। पर्वत नदी समुद्र हृद-तालाब आदि सभी स्थानोंसे जीव निर्वाण प्राप्त कर सकता है। परन्तु संहरण किस किसका होता है और किस किसका नहीं होता, सो उपर लिखे अनुसार समझना चाहिये। इस प्रकार क्षेत्रकी अपेक्षासे सिद्धोंमें विशेषताका निरूपण किया जासकता है । क्योंकि कोई भरतक्षेत्र-सिद्धं हैं, कोई ऐरावतक्षेत्र-सिद्ध हैं, कोई विदेहक्षेत्र-सिद्ध हैं, कोई समुद्र-सिद्ध हैं, कोई नदी-सिद्ध हैं, कोई पर्वत-सिद्ध हैं इत्यादि । किन्तु स्वरूपकी अपेक्षा सब समान हैं। ___काल- इस विषयमें भी उपर्युक्त दोनों नयोंकी अपेक्षा रहा करती है । अतएव यदि कोई यह जानना चाहे, कि सिद्ध-अवस्था किस कालमें सिद्ध हुआ करती है ? अथवा कौन कौनसा वह समय है, कि जिसमें समस्तकौंका मूलोच्छेदन करके जीव मक्ति-लाभ कर सकते हैं ? तो इसका उत्तर भी उक्त दोनों नयोंकी अपेक्षासे ही दिया जायगा । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयनयकी अपेक्षा किसी भी कालमें सिद्धि नहीं होती-अकालमें ही सिद्ध हुआ करते हैं। पूर्वभावप्रज्ञापनीयकी अपेक्षा कालका वर्णन हो सकता है । किन्तु इसमें भी दो अपेक्षाएं हैं, एक जन्मकी अपेक्षा और दूसरी संहरणकी अपेक्षा । जन्मकी अपेक्षासे अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ और उत्सर्पिणीमें उत्पन्न हुआ तथा अनवसर्पिणी और अनुत्सर्पिणीमें भी उत्पन्न हुआ जीव मुक्ति-लाभ कर सकता है । किन्तु यह कथन सामान्य अपेक्षासे समझना चाहिये, विशेष दृष्टि से सम्पूर्ण अवसर्पिणीमें सिद्धि नहीं होती, किन्तु सुषमदुःषमाकालके अन्तके शेष रहे कुछ संख्यात वर्षों में ही होती है, और समस्त दुःषमसुषमाकालमें हुआ करती है । दुःषमसुषमामें उत्पन्न हुआ मनुष्य दुःषमाकालमें सिद्धि लाभ कर सकता है । किन्तु दुःषमाकालमें उत्पन्न हुआ जीव मुक्ति-लाभ नहीं कर सकता। इनके सिवाय और किसी भी समयमें सिद्धि नहीं हुआ करती । संहरणकी अपेक्षा सम्पूर्ण कालोंमें सिद्धि हो सकती है । अवसर्पिणी उत्सर्पिणी अनवसर्पिणी और अनुत्सर्पिणी इन सभी कालोंमें सिद्धि हो सकती है। १-क्योंकि ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणको ही विषय करता है, जोकि शब्दका विषय नहीं होसकता।जबतक शब्दका उच्चारण किया जाता है, तबतक असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं । अतः वर्तमान क्षणको विषय करने. वाले नयके द्वारा सिद्ध-अवस्थाका वर्णन नहीं हो सकता । HALA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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