Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 454
________________ १२९ सूत्र ४२-४३-४ ४-४५-४६ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-प्रश्न-ऊपर वितर्क और विचार ये दो शब्द पढ़े गये हैं, किन्तु इनका अर्थ अमीतक अज्ञात है, अतएव काहये, कि इनका क्या अर्थ है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये क्रमानुसार पहले वितर्क शब्दका अर्थ बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-वितर्कः श्रुतम् ॥४५॥ भाष्यम्--यथोक्तं श्रुतज्ञानं वितर्को भवति॥ अर्थ-पहले अध्यायमें श्रुतज्ञानका लक्षण और अर्थ बताया जा चुका है, उसी प्रकार वितर्क शब्दका अर्थ भी समझ लेना चाहिये । अर्थात् श्रुतज्ञानको ही वितर्क कहते हैं । विचार शब्दका क्या अर्थ है सो बताते हैं सूत्र-विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥ ४६॥ भाष्यम्-अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिर्विचार इति ॥ अर्थ- अर्थ व्यञ्जन और योग इनकी संक्रान्ति-पलटनको विचार कहते हैं । भावार्थ-इस सूत्रमें तीन विषय हैं-अर्थ व्यञ्जन और योग । ध्यानके विषयभूतध्येयको अर्थ कहते हैं । वह सामान्यसे दो प्रकारका है-एक द्रव्य दूसरा पर्याय । क्योंकि द्रव्य और पर्यायके समूहको ही अर्थ-पदार्थ कहते हैं । व्यञ्जन नाम श्रुतवचनका है । जिससे अर्थविशेष अभिव्यक्त होता है, ऐसे किसी भी श्रुतके वाक्यको व्यञ्जन कहते हैं। योग शब्दका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है कि-" कायवाङ्मनःकर्मयोगः" । मनवचन कायके द्वारा जो आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दनरूप क्रिया होती है, उसको योग कहते हैं । जिसमें ध्येय अर्थ पलटता रहता है-विवक्षित एक द्रव्य या पर्यायको छोड़कर दूसरे द्रव्य या पर्यायकी तरफ प्रवृत्ति होती है, इसी प्रकार एक श्रुतवचनको छोड़कर दूसरे श्रुतवचनका आलम्बन लिया जाता है, एवं जिसमें योगोंका भी पलटना जारी रहता है, उसको पहला पृथक्त्ववितर्क सविचार शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकारका पलटना दूसरे शुक्लध्यानमें नहीं हुआ करता, अतएव उसको अविचार कहते हैं । भाष्यम्-तदाभ्यन्तरं तपः संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकं निर्जरणफलत्वाकर्मनिर्जरकम् । अभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकत्वात्पूर्वोपचितकर्मनिर्जरकत्वाच्च निर्वाणप्रापकमिति॥ अर्थ-ऊपर बाह्य तपके अनन्तर जिस आभ्यन्तरतपका उल्लेख किया गया है, वह संवर और निर्मराका कारण है । नवीन कर्मोंके संचयके रुक जानेको संवर कहते हैं । और जो पहले ही से संचित हैं, उन कर्मोंके एकदेशतया विच्छेद-नाश होनेको निर्जरा कहते हैं । यह आभ्यन्तरतप दोनों ही कार्योंका साधक है । इन तपोंके करनेवालेके नवीन कर्मोंका संचय नहीं होता, और संचित कर्म आत्मासे सम्बन्ध छोड़कर झड़ जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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