Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 458
________________ सूत्र ४९ । ] संभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४१३ भावार्थ - इस सूत्र बताये गये संयमादि आठ कारणोंसे पुलाकादिका भेद सिद्ध होता है । उसीको यहाँपर क्रमसे बताते हैं हैं, संयम–पुलाकादिमेंसे कौनसा निर्ग्रन्थ किस संयमको धारण किया करता है, यह अनुयोग संयमकी अपेक्षा निर्ग्रन्थोंकी विशेषताको सिद्ध करता है । वह इस प्रकार है - पुलाक कुश और प्रतिसेवनाकुशील दो संयमोंको ही धारण किया करते हैं । - या तो सामायिकसंयमको अथवा छेदोपस्थाप्यसंयमको । कषायकुशील भी दो ही संयमोंको धारण किया करते , - या तो परिहारविशुद्धिसंयमको अथवा सूक्ष्मसंपरायसंयमको । तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक एक यथाख्यातसंयमको ही धारण किया करते हैं । इस प्रकार संयमकी अपेक्षा पाँचोंमें भेद है । उत्कृष्टेनाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । बकुशकुशीलनिर्मन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । श्रुतापगतः केवली स्नातक इति । भाष्यम् – श्रुतम् — पुलाकब कुशप्रतिसेवनाकुशीला . प्रतिसेवना - पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिष्ठानां पराभियोगाद्वलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति । मैथुनमित्येके । बकुशो द्विविधः उपकरणब कुशः शरीर. बकुशश्च । तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषीपकरणकांक्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतिसंस्कारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति । शरीराभिष्वक्तचित्तो विभूषार्थ तत्प्रतिसंस्कारसेवी शरीरबकुशः । प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधन प्रतिसेवते । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति ॥ अर्थ - श्रुतका लक्षण और भेद पहले बता चुके हैं । उनमें से कौन कौन निर्धन्थ किस किस भेदके धारक हुआ करते हैं, सो इस प्रकार है । - पुलाक बकुश और प्रतिसेव ना कुशील ज्यादः से ज्यादः अभिन्नाक्षर दशपूर्वके धारक हुआ करते हैं । कषायकुशील और निर्मन्थ उत्कृष्टतया चौदह पूर्वके धारक हो सकते हैं। पुलाकका श्रुत जघन्य अपेक्षा आचारवस्तुप्रमाण हुआ करता है। कमसे कम इतना श्रुत उनके रहता ही है । बकुश कुशील और निर्ग्रन्थ इनका जघन्य श्रुत आठ प्रवचनमातृकाप्रमाण होता है । केवली भगवान् स्नातक निर्मन्थ श्रुतसे रहित होते हैं । क्योंकि उनके प्रत्यक्ष केवलज्ञान रहा करता है । प्रतिसेवना – किसी विषक्षित विषयके सेवन करनेको प्रतिसेवना कहते हैं । पाँच मूलगुण और छट्टा रात्रिभोजनविरति नामका व्रत साधुओं को अखण्डित रखना चाहिये । किंतु दूसरों के अभियोगसे या बलात्कार - जबर्दस्ती से किसीका भी सेवन करने लगे-रात्रिमें भी भोजन कर ले, या किसी मूलगुणका भंग कर ले, तो भी वह पुलाक जातिका निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है । तथा किसी किसी आचार्य के मतसे पुलाक जातिके निर्ग्रन्थ मैथुनका भी सेवन कियों करते हैं । १ पाँच समिति और तीन गुप्तियों को आठ प्रवचनमातृका कहते हैं । बकुरा कुशील और निर्मन्थको कमसे कम इतना ज्ञान अवश्य रहना चाहिये । २ -- दिगम्बर-सम्प्रदाय में पुलाक उसको कहते हैं, जिसके कि २८ मूलगुणोंमें क्वचित् कदाचित् किसीका भंग हो जाय, रात्रिभोजन आदि में प्रवृत्ति हो जानेपर विशेष प्रायश्चित्त प्रण करना पड़ता है । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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