Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 455
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः और जब कि नवीन कर्मोंका आना रुक गया तथा संचित कर्मोंका भी अभाव होने लगा, तो निर्वाणकी प्राप्ति भी इसीसे सिद्ध हो जाती है, अतएव इस तपको निर्वाणका प्रापक या साधक भी कह सकते हैं। __भावार्थ-उपर जिसका व्याख्यान किया गया है, उस आभ्यन्तरतपका फल-साक्षात्फल संवर और उत्तर-फल निर्जरा तथा परम्परा-फल निर्वाण है। भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता परीषहजयात्तपसोऽनुभावतश्च कर्मनिर्जरा भवतीति। तत्कि सर्वे सम्यग्दृष्टयः समनिर्जरा आहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते ___ अर्थ--प्रश्न-आपने ऊपर कहा था, परीषहोंके जय-जीतनेसे और तपके प्रभावसे कर्मोकी निर्जरा हुआ करती है, इस विषयमें यह जानना बाकी है, कि जितने सम्यग्दृष्टि हैं, वे सभी इन परीषहजय और तपरूप कारणके मिलनेपर समान फलको प्राप्त होते हैं, अथवा असमान । सम्यग्दृष्टिमात्रके कर्मोंकी निर्जरा एक सरीखी होती है, अथवा उसमें भी कुछ विशेषता है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं सूत्र-सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाःक्रमशोऽसंख्येयगुणनिजराः॥४७॥ भाष्यम्-सम्यग्दृष्टिः श्रावकः विरतः अनन्तानुबन्धिवियोजकः दर्शनमोहक्षपका मोहोपशमकः उपशान्तमोहः मोहक्षपकः क्षीणमोहः जिन इत्येते दश क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरा भवन्ति ।तद्यथा-सम्यग्दृष्टेः श्रावकोऽसख्येयगुणनिजेरः श्रावकाद्विरतः विरतादनन्तानुबन्धिवियोजक इत्येवं शेषाः॥ ___ अर्थ-संचित कर्मोंकी निर्जरा करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंके दश स्थान हैं । यथा-सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, मोहोपशमक, उपशान्तमोह, मोहक्षपक, क्षीणमोह, और जिन । इनके कर्मोंकी निर्जरा हुआ करती है, किन्तु सबके समान नहीं होती। इन दश स्थानोंमें क्रमसे असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा हुआ करती है। जैसे किसम्यग्दृष्टिके जितनी कोंकी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा श्रावकके होती है, और जितनी श्रावकके होती है, उससे असंख्यातगुणी विरतके होती है, तथा जितनी विरतके होती है, उससे भी असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेवालेके हुआ करती है। इसी क्रमसे आगेके स्थानोंकी निर्जराका भी प्रमाण समझ लेना चाहिये । सबसे अधिक निर्जरा जिनभगवान्के हुआ करती है। भावार्थ-जिनके कर्मोंकी निर्जरा हुआ करती, है उन सभी सम्यग्दृष्टियोंके स्थान समान निर्जरावाले नहीं है, किन किनके कितनी कितनी निर्जरा होती है, सो इस सत्रमें बताया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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