Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 450
________________ सूत्र ३२-३३-३४-३१-३६-३७।] सभाष्यतस्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । चारों आर्तध्यानोंके स्वामियोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥ भाष्यम् -- तदेतदार्त्तध्यानमविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानामेव भवति ॥ अर्थ – यह उपर्युक्त आर्तध्यान अविरत देशविरत और प्रमत्तसंयत छट्ठे गुणस्थानवर्ती जीवोंके ही हुआ करता है । भावार्थ - इस सूत्र में चौथे पाँचवें और छट्टे गुणस्थानवर्त्तीका उल्लेख किया गया है । अतएव जैसा कि किया गया है, वैसा सूत्र न करके ऐसा कर दिया जाता कि " तत्प्रमत्त संयतान्तानामेव " तो भी काम चल सकता था । परन्तु वैसा न करके जो गौरव किया गया है, उससे विशिष्ट अर्थका ज्ञापन - बोध होता है, ऐसा समझना चाहिये । वह यह कि प्रमत्तसंयत के निदानको छोड़कर बाकी के ३ आर्तध्यान हो सकते हैं । निदानके होनेपर छट्टा गुणस्थान छूट 1 जाता है । तथा देशविरत के भी कदाचित् निदान आर्तध्यान होता है । क्रमानुसार रौद्रध्यानके भेद और उनके स्वामियोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३६ ॥ भाष्यम् - हिंसार्थमनृतवचनार्थ स्तेयार्थ विषयसंरक्षणार्थं च स्मृतिसमन्वाहारो रौद्रध्यानं तदविरतदेशविरतयोरेव भवति ॥ अर्थ — हिंसाकर्म के लिये और अनृतवचन - मिथ्याभाषण करने के लिये, तथा स्तेयकर्म - श्वोरीके लिये एवं विषयसंरक्षण - पाँचों इन्द्रियों के विषयोंकी रक्षा या पुष्टिके लिये जो पुनः पुनः विचार करना अथवा इन्हीं विषयोंकी तरफ चित्तके लगाये रखनेको रौद्रध्यान कहते हैं । यह अविरत तथा देशविरतके ही हुआ करता है ४२५ भावार्थ–पाँचवें गुणस्थानसे ऊपरके जीवोंके रौद्रध्यान नहीं हुआ करता । तथा ऊपर कहे अनुसार देशविरत के भी कदाचित् हो सकता है, किंतु अविरत के समान नरकादिक गतिका कारणभूत रौद्रध्यान उसके नहीं हो सकता । यह दोनोंमें अन्तर है । इस प्रकार अप्रशस्त ध्यानोंके भेद आदि बताकर क्रमानुसार धर्मध्यानके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं— सूत्र - आज्ञापायविपाक संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥ ३७ ॥ भाष्यम् -- आज्ञाविचयाय अपायविचयाय विपाकविचयाय संस्थानविचयाय च स्मृतिसमन्वाहरो धर्मध्यानम् । तदप्रमत्तसंयतस्य भवति । किं चान्यत् अर्थ — आज्ञाविचयके लिये अपायविचय के लिये विपाकविचय के लिये और संस्थान ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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