Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 445
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ नवमोऽध्यायः हों, और शिक्षा देने योग्य हों, उसको शैक्ष कहते हैं। अथवा जो शिक्षा प्राप्त करते हों, उनको शैक्ष कहते हैं । ग्लान शब्दका अर्थ प्रसिद्ध है कि रोगादिसे संक्लिष्ट । अर्थात् जो बीमार है या बाधायुक्त है, उसको ग्लान कहते हैं। स्थविर-वृद्ध मुनियोंकी संततिके संस्थानको गण कहते हैं । आचार्य संततिके संस्थानको कुल कहते हैं। श्रमण आदि चारोंके समूहको संघ कहते हैं। अर्थात् मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका इन चारोंको संघ कहते हैं। जो संयमको धारण करनेवाले हैं, उन सबको साधु कहते हैं । जो संभोगयुक्त हैं, उनको समनोज्ञं कहते हैं । ___ इनका अन्नपान वैन पात्र प्रतिश्रय-स्थान पीठ-आसन फलक-तखता संस्तर-विछोना आदिक धर्म-साधनोंके द्वारा उपकार करना चाहिये । उनकी शुश्रूषा-सेवा तथा चिकित्सा आदि करना अथवा कदाचित् वनमें या विषम दुर्गस्थानमें यद्वा उपसर्गसे आक्रान्त पीड़ित होनेपर उनकी सेवा करना आदि सब वैयावृत्त्य नामका तप माना गया है। भावार्थ-व्यावृत्त अथवा व्यावृत्ति शब्दसे भाव या कर्म अर्थमें ण्य प्रत्यय होकर वैयावृश्य शब्द बनता है। व्यावृत्ति नाम दूर करनेका है । दूर करनेको या दूर करनेके लिये जो क्रिया की जाय, उसको वैयावृत्य कहते हैं । अर्थात् आचार्य आदिके ऊपर आई हुई विपत्ति या बाधाको दूर करना और उनकी हरप्रकारसे सेवा करना तथा परीषह उपसर्ग आदिकी निवृत्ति करना इत्यादि सम्पूर्ण क्रियाएं वैयावृत्त्य हैं । जिनकी वैयावृत्त्य की जाती है, उनके दश भेद हैं, जो कि इस सूत्रमें गिनाये गये हैं, अतएव वैयावृत्यके भी दश भेद हैं, और इसी लिये इस सूत्रमें बताये गये आचार्य आदि प्रत्येक शब्दके साथ वैयावृत्य शब्द-जोड़नेसे उसके दश भेद हो जाते हैं ।-आचार्यवैयावृत्य उपाध्यायवैयावृत्त्य तपस्विवैयावृत्त्य इत्यादि । आचार्योंकी सेवाको आचार्यवैयावृत्त्य और उपाध्यायोंकी सेवा-शुश्रूषाको उपाध्यायवैयावृत्य तथा तपस्वियोंकी सेवा आदिको तपस्विवैयावृत्त्य कहते हैं । इसी प्रकार प्रत्येक शब्दका अर्थ समझ लेना चाहिये । __क्रमानुसार वैयावृत्त्यके अनंतर स्वाध्यायतपके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र-वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षामायधर्मोपदेशाः ॥२५॥ भाष्यम्-स्वाध्यायः पञ्चविधः । तद्यथा-वाचना प्रच्छनं अनुप्रेक्षा आम्नायः धर्मोपदेश इति । तत्र वाचनम् शिष्याध्यापनम् । प्रच्छनं ग्रन्थार्थयोः । अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थयोरेव मनसाभ्यासः । आम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपदानमित्यर्थः । अर्थोपदेशो व्याख्यानमनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनान्तरम् ॥ १-दिगम्बर-सम्प्रदायमें केवल मनोज्ञ शब्दका ही पाठ है, समनोज्ञ नहीं । जिसकी लोकमें मान्यता अधिक हो उसको मनोज्ञ कहते हैं । २-वस्त्र पात्र विछोना आदि दिगम्बर-सम्प्रदायमें साधुओंको नहीं दिया जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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