Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 443
________________ रायचन्द्र जैन ४१८ [ नवमोऽध्यायः I प्रायः शब्दका अर्थ बहुधा अथवा अपराध होता है, और चित्त शब्दका अर्थ संज्ञात अथवा शुद्ध किया हुआ होता है । क्योंकि यह शब्द चिती धातुसे जिसका कि अर्थ संज्ञान अथवा विशुद्धि होता है, भूत अर्थमें निष्ठाक्त प्रत्यय होकर अथवा औणादिक त प्रत्यय होकर बनता है । तात्पर्य यह है कि — पूर्वोक्त रीतिसे विधिपूर्वक किये गये कठिन आलोचन आदि विशिष्ट तपोंके करनेसे जिसका प्रमाद दूर हो गया है, ऐसा मुमुक्षु उस अपराधको प्रायः भले प्रकार जान जाता है, अच्छी तरह समझते हुए फिर वह वैसा नहीं करता । अतएव उसको प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा प्रायः शब्दका अर्थ अपराध होता है, और चिती धातुका अर्थ शुद्धि | अतएव जिसके करनेसे अपराधकी शुद्धि होती है, उसको भी प्रायश्चित्ते कहते हैं । इस प्रकार प्रायश्चित्तके भेदोंको बताकर क्रमानुसार विनयतपके भेदों को गिनाते हैं निशास्त्रमालायाम् सूत्र - ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ भाष्यम् - विनयश्चतुर्भेदः । तद्यथा - ज्ञानविनयः दर्शनविनयः चारित्रविनयः उपचारविनयः । तत्र ज्ञानविनयः पञ्चविधः मतिज्ञानादिः । दर्शनविनयः एकविध एव सम्यग्दर्शनविनयः । चारित्रविनयः पञ्चविधः सामायिक विनयादिः । औपचारिकविनयोऽनेकविधः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रादिगुणाधिकेष्वभ्युत्थानासन प्रदानवन्दनानुगमनादिः । विनीयते तेन तस्मिन्वा विनयः ॥ अर्थ -- विनय तपके चार भेद हैं । - ज्ञानविनय दर्शनविनय चारित्रविनय और उपचार - विनय । इनमें से पहला ज्ञानविनय मतिज्ञानादिके भेदसे पाँच प्रकारका है । - मतिविनय श्रुतविनय अवधिविनय मनःपर्ययविनय और केवलविनय । दर्शनविनयका एक ही भेद है -- सम्यग्दर्शन - विनय | चारित्रविनयके पाँच भेद हैं- सामायिकविनय छेदोपस्थापनविनय परिहारविशुद्धिविनय सूक्ष्मसंपरायविनय और यथारव्यातविनय । औपचारिकविनय के अनेक भेद हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र आदि गुणोंकी अपेक्षासे जो अपनेसे अधिक हैं, उनके लिये खड़े होना उसको आसन देना, वन्दना करना और उनका अनुसरण करना आदि औपचारिकविनय कहा जाता है । यह गुणभेदकी अपेक्षा अथवा आश्रयभेदसे अनेक प्रकारका हो सकता है । जिसके द्वारा नम्रता प्राप्त हो, उसको विनय तप कहते हैं । T । भावार्थ – विनयका अर्थ आदर करना आदि है । यह दो प्रकारका हो सकता है, एक मुख्य दूसरा उपचरित । ज्ञान दर्शन और चारित्र गुणके धारण करनेको मुख्यविनय और उन गुणोंसे युक्त व्यक्ति आदिका आदर सत्कार करना इसको उपचरितविनय कहते हैं । जैसे कि Jain Education International १-प्रायः शब्दका अर्थ लोक भी होता है । २- प्रायः शब्दका अर्थ लोक करनेपर प्रायश्चित्तका अर्थ ऐसा भी होता है, कि - प्रायो लोकस्तस्य चित्तं शुद्धिमियति यस्मात् तत्प्रायश्चित्तम् । जिस क्रिया के करनेसे लोगों के हृदयमें अपराधी बावत् बैठी हुई ग्लानि दूर हो जाय, उसको प्रायश्चित्त कहते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498