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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ नवमोऽध्यायः
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिरित्यतः प्रभृति सम्यगित्यनुवर्तते । संयमरक्षणार्थं कर्मनिर्जरार्थं च चतुर्थषष्ठाष्टमादि सम्यगनशनं तपः ॥ १ ॥
अर्थ – बाह्यतप के छह भेद हैं । — अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासनता, और कायक्लेश ।
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गुप्तिका लक्षण बतानेके लिये पहले यह सूत्र लिखा जा चुका है, कि “सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः” । इस सूत्रमें जो सम्यक् शब्द आया है, उसकी वहींसे लेकर अनुवृत्ति चली आती है । अतएव अनशन आदि प्रत्येक शब्द के साथ सम्यक् शब्द को जोड़ लेना चाहिये, सम्यगनशन सम्यगवौदर्य इत्यादि ।
संयमकी रक्षा के लिये और कर्मो की निर्जराके लिये जो चतुर्थ षष्ठ या अष्टम आदिका धारण करना इसको सम्यगनशन नामका तप कहते हैं ।
भावार्थ - अशन - भोजनके त्यागको अनशन अथवा उपवास कहते हैं । इस तरह का अनशन रोग निवृत्ति आदिके लिये भी किया जाता है, परन्तु वह प्रकृत में उपादेय नहीं माना है । संयमकी रक्षा और कर्मोंकी निर्जराको सिद्ध करनेके लिये जो आहारका परित्याग किया जाता है, उसीको प्रकृतमें अनशन कहते हैं । इस बात को दिखाने के लिये ही सम्यकु शब्द जोड़ा गया है ।
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प्रोषघोपवासको चतुर्थ, वेलाको षष्ठ और तेलाको अष्टम कहते हैं। क्योंकि आगममें एक दिनकी दो मुक्ति मानी गई हैं । एक प्रातःकालकी और दूसरी सायंकालकी । इनमेंसे एकके त्यागको प्रोषध और दोनोंके त्यागको उपवास कहते हैं । अष्टमी चतुर्दशी आदिके अवसरपर पहले और पिछले दिनकी एक एक मुक्ति और मध्यके दिनकी दो भुक्ति इस तरह चार भुक्तियोंके त्यागको प्रोषधोपवास कहते हैं । जैसे कि सप्तमीको और नवमीको एक एक मुक्तिका और अष्टमीको दोनों भुक्तियोंका जो परित्याग किया जाय, तो वह अष्टमीका प्रोषधोपवास कहा जायगा । इसी तरह मध्यके दो दिनोंमें दो दो भुक्तियों का त्याग करनेसे षष्ठ, और तीन दिनकी दो दो मुक्तियों का त्याग करने से अष्टम अनशन कहा जाता है । इसी प्रकार दशम आदिका भी स्वरूप समझ लेना चाहिये । इस तपमें इन्द्रियोंको जीतने के लिये कषायका परिहार करने के लिये निद्रा आदि प्रमाद के वशीभूत न होनेके लिये तथा विकथा आदिके करने में प्रवृत्ति न हो, इसके लिये चतुर्विध आहारका परित्याग किया जाता है । इसीले संयम और कर्मोकी निर्जरा सिद्ध हुआ करती है ॥ १ ॥
भाष्यम् - अवमौदर्यम् अवममित्यूननाम । अवममुदरस्य अवमोदरः अवमोदरस्य भावः अवमादर्यम् । उत्कृष्टावकृष्टौ वर्जयित्वा मध्यमेन कवलेन त्रिविधमवमौदर्यं भवति । तद्यथाअल्पाहाराव मौदर्यमुपार्धावमौदर्य प्रमाणप्राप्तात्किञ्चिदूनावमौदर्यमिति । कवलपरिसंख्यानं च प्राग्द्वात्रिंशद्वयः कवलेभ्यः ॥ २ ॥
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