________________
२६४
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचमोऽध्यायः ऊपर ही संसारके कार्यमात्र निर्भर हैं, और इनकी सिद्धि पुद्गल द्रव्यसे ही होती है । अतएव यह पुद्गल द्रव्यका ही उपकार है । यहाँपर उपकारका मतलब कारणपना बतानेका है । परन्तु धर्मादिककी तरह पुद्गल द्रव्य उदासीन कारण नहीं है, प्रेरक भी है।
भाष्यम्-किश्चान्यत्
अर्थ-ऊपर जो पुद्गल द्रव्यका उपकार बताया है, उसके सिवाय और भी उसके उपकार हैं । अर्थात् शरीरादिकके सिवाय और और आकार या प्रकारके द्वारा भी पुद्गल द्रव्य निमित्त बना करता है। किस किस प्रकारसे बनता है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २०॥ भाष्यम्-सुखोपग्रहो दुःखोपग्रहो जीवितोपग्रहश्च मरणोपग्रहश्चेति पुद्गलानामुपकार। तद्यथा-इष्टाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः सुखस्योपकाराः। अनिष्टा दुःखस्य । स्थानाच्छादनानुलेपनभाजनादीनि विधिप्रयुक्तानि जीवितस्यानपवर्तनं चायुष्कस्य । विषशस्त्राग्न्यादीनि मरणस्य, अपवर्तनं चायुष्कस्य।
अर्थ-सुखमें निमित्त बनना, दुःखमें निमित्त बनना, जीवनमें निमित्त बनना, और मरणमें निमित्त बनना यह सब भी पुद्गल द्रव्यका ही उपकार है। यथा - इष्ट रूप स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द सुखके निमित्त हैं। ये ही विषय यदि अनिष्ट हों, तो दुःखके निमित हुआ करते हैं । विधिपूर्वक निनका सेवन किया गया है, ऐसे स्नान आच्छादन अनुलेपन और भोजन आदि जीवनके निमित हैं, और आयुका अनपवर्तन भी उसका निमित्त है। इसी प्रकार विष शस्त्र अग्नि आदि पदार्थ और आयका अपवर्तन मरणका निमित्त है।
भावार्थ-संसारमें कोई भी पदार्थ इष्ट ही हो, या अनिष्ट ही हो यह बात नहीं है। एक ही पदार्थ किसीको इष्ट प्रतीत होता है, तो किसीको अनिष्ट । अथवा किसी एक व्यक्तिको जो पदार्थ कभी इष्ट मालूम होता है, उसीको वही पदार्थ कालान्तरमें अनिष्ट भी प्रतीत होता है । अतएव यह निश्चय है, कि स्वभावसे कोई भी पदार्थ न इष्ट है, और न अनिष्टं । जो पदार्थ रागके विषयभूत हुआ करते हैं, उनको इष्ट कहते हैं, और जो द्वेषके विषय हुआ करते हैं उनको अनिष्ट कहते हैं । यही कारण है, कि नीवके ग्रहणमें आनेवाले पाँचों ही इन्द्रियोंके विषय-स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्द इष्ट और अनिष्ट दोनों ही प्रकारके माने हैं, तथा बताये हैं, और कमसे सुख तथा दुःखके निमित्त कहे गये हैं।
यदि स्नानादिका विधिपूर्वक सेवन न किया जाय, तो वे ही कदाचित् अपायके कारण भी हो जाते हैं, परन्तु देश काल मात्रा और अपनी प्रकृतिके अनुरूप जो स्नान भोजन गमन शयन
१-तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिटं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ॥ (प्रशमरति श्लोक ५२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org