Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 363
________________ ३३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [सप्तमोऽध्यायः सूत्र-मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥ १७॥ ___ भाष्यम्--कालसंहननदौर्बल्योपसर्गदोषाद्धर्मावश्यकपरिहाणिं वाभितो ज्ञात्वावमौदर्यचतुर्थषष्ठाष्टमभक्तादिभिरात्मानं संलिख्य संयमं प्रतिपद्योत्तमव्रतसम्पनश्चतुर्विधाहारं प्रत्याख्याय यावज्जीवं भावनानुप्रेक्षापरः स्मृतिसमाधिबहुलो मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता उत्तमार्थस्याराधको भवतीति ॥ ___ अर्थ-काल संहनन दुर्बलता और उपसर्ग आदिके दोषसे जब अच्छी तरह यह बात मालम हो जाय, कि अब धर्मके पालन करने तथा आवश्यक कार्योंके करनेमें हर तरहसे क्षति उपस्थित होनेवाली है, तो अवमौदर्य चतुर्थभक्त षष्ठभक्त या अष्टमभक्त आदि उपवासोंके द्वारा आत्माका संलेखन--संशोधन करना चाहिये, और संयमको धारण करके उत्तम व्रत-संलेखनाके द्वारा अपनेको पूर्ण करना चाहिये । इसके लिये यावज्जीवन चतुर्विध आहार खाद्य स्वाद्य लेह्य पेयका परित्याग करके अनित्यादिबारह भावनाओंका निरन्तर चिन्तवन करनेमें रत होना चाहिये । तथा देव गुरु शास्त्रादिके समीचीन पवित्र गुणोंका स्मरण करने और प्रायः समाधिधारण करनेमें परायणता रखकर मारणान्तिकी संलेखनाका सेवन करना चाहिये । जो अगारी व्रती इसका सेवन करता है, वह उत्तमार्थका आराधक समझा जाता है। भावार्थ-इसको सल्लेखनावत या संलेखनामरण कहते हैं। किंतु इसमें समाधिकी प्रधानता है, अतएव इसका नाम समाधिमरण भी है। यह व्रत समस्त व्रतोंका फलस्वरूप-सबको सफल बनानेवाला है। अतएव इसका अवश्य आराधन करना चाहिये । सूत्रकारने इसके लिये जोषिता शब्द दिया है । इसका आशय यह है, कि इस व्रतका प्रीतिपूर्वक सेवन करना चाहिये। जिस समय यह मालम हो जाय, कि अब हमारा मरण अवश्यम्भावी है, अथवा दुष्काल या अन्य किसी प्रकारके काल-दोषसे यद्वा शारीरिक शक्ति-वीर्य और बल पराक्रमके कम हो जानेसे या किसी प्रकारके उपसर्ग आदिके होनेपर धर्माराधन और आवश्यक कार्यके साधनमें क्षति पड़ती नजर पड़े, तो आत्माका संलेखन-संशोधन करके विधिपूर्वक समाधिके साथ अथवा अरिहंतादि पंचपरमेष्ठीके गणोंका स्मरण करते हुए, प्राणोंका परित्याग कर देना चाहिये । इसीको समाधिमरण कहते हैं। इस व्रतके करनेवालेको यावज्जीवनके लिये क्रमसे चतुर्विध आहारका त्याग करना चाहिये । पहले अवमौर्य और उसके बाद क्रमसे शक्तिके अनुसार चतुर्थभक्त आदि उपवास धारण करना चाहिये, जिससे कि आत्माका कषायादि दोषोंके दर हो जानेसे संशोधन हो जाय। पुनः संयमको धारण करके भावनाओंको भाते हुए परमेष्ठिस्मृति और समाधिमें प्रवृत्त होना चाहिये। इसकी विशेष विधि आगम-प्रन्थोंसे जाननी चाहिये। इसके अन्तमें नियमसे मरण होता है, अतएव इसको मारणान्तिकी कहते हैं, और इसके करनेमें काय तथा कषायका परित्याग किया जाता है, इसलिये इसका नाम संलेखना है। १ जुष् धातुका अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन करता है । २-प्रमाणसे कम भोजन पान करना । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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