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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ अष्टमोऽध्यायः
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कर्मके उदयसे शरीर तथा उसके प्रत्येक अङ्ग और उपाङ्ग विरूप या अनियत आकारका बनें उसको हुण्डकनामकर्म कहते हैं । संहनन नाम हड्डी अथवा शरीरको हड्डी आदिकी दृढ़ता का है । जिस कर्मके उदयसे वह प्राप्त हो, उसको संहनननामकर्म कहते हैं, उसके भी छह भेद हैं । यथा - वज्रर्षभनाराच, अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, और सृपाटिको | जिस कर्मके उदयसे वज्रकी हड्डी वज्रका वेष्टन और वज्रकी ही कीली हो, उसको वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं । जिसकर्मके उदयसे वज्रकी हड्डी और वज्रका वेष्टन तथा वज्रकी कीली आधी प्राप्त हो, उसको अर्धवज्रर्षभनाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदयसे हड्डियोंके ऊपर वेष्टन प्राप्त हो, उसको नाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदयसे आधा वेष्टन प्राप्त हो, उसको अर्धनाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदयसे हड्डियों में कीलियाँ प्राप्त हों, उसको कीलिकासंहनन कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे हड्डियाँ न वेष्टित हों, और न कीलितहों, केवल नर्सोंके द्वारा बँधी हों, उसको सृपाटिकासंहनन कहते हैं जिस कर्म के उदयसे शरीर में स्पर्शनेन्द्रियके विषयभूत गुण प्राप्त हों, उसको स्पर्शनामकर्म कहते हैं । इसके आठभेद हैं । यथा -- कठिन, कोमल, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, और उष्ण । जिसके उदयसे शरीरमें रसना इन्द्रियका विषयभूत गुण प्राप्त हो, उसको रसनामकर्म कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं । यथा -- तिक्त मधुर अम्ल कटु और कषाय । जिसके उदयसे शरीर में घ्राणेन्द्रियका विषयभूत गुण प्राप्त हो, उसको गन्धनामकर्म कहते हैं । उसके दो भेद हैं, सुरभि और असुरभि । —सुगन्ध और दुर्गन्ध । जिसके उदयसे शरीर में चक्षुरिन्द्रियका विषयभूत गुण उत्पन्न हो, उसको वर्णनामकर्म कहते हैं । उसके पाँच भेद हैं । - काला पीला लाल श्वेत हरितै । मरणके अनन्तर यथायोग्य गतिमें उत्पन्न होनेके लिये गमन करते समय जबतक योग्य जन्मस्थानमें पहुँचा नहीं है, तबतक जिस कर्मके उदयसे जीव उस गतिके जन्मस्थानकी तरफ उन्मुख रहता और उस स्थानको प्राप्त होता है, उसको आनुपूर्वीनामकर्म कहते हैं । यह कर्म जीवको मृत्युके बाद भवान्तरमें पहुँचाने के लिये समर्थ है' । कोई कोई कहते हैं, कि निर्माणकर्मके द्वारा जिनका योग्य निर्माण हो चुका है, ऐसे शरीर के अंग और उपांगों का जिसके निमित्तसे विनिवेश -क्रमका नियमन हो - नियमबद्ध योग्य स्थानोंपर ही वे निवेशित हों, उसको आनुपूर्वीनामकर्म कहते हैं । जिसके
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१ --- दिगम्बर - सम्प्रदायमें छह भेद इस प्रकार हैं--वज्रर्षभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन कीलकसंहनन और स्पाटिका संहनन । २- भाष्यकारने स्पर्शादिकके भेदों को बताते समय आदि शब्दका प्रयोग किया है, जिससे ऐसा मालूम होता है, कि इस लिखित प्रमाणसे स्पर्श रस वर्ण और गंधके अधिक भी भेद होंगे। परन्तु ऐसा नहीं है, इन गुणों के भेद इतने ही होते हैं । जैसा कि स्वयं भाष्यकारने भी अध्याय ५ सूत्र २३ की टीका में दिखाया है । ३- दिगम्बर - सम्प्रदाय में इसका अर्थ ऐसा माना है, कि इसके उदयसे विग्रहगतिमें जीवका आकार त्यक्त-छोड़े हुये शरीरके आकार रहा करता है । जैसे कि कोई पशु मरकर देव हुआ, उस जीवका विग्रहगतिमें आकार उस पशु सरीखा रहेगा । ४- - दिगम्बर - सम्प्रदाय में यह कार्य निर्माणकर्मका है । क्योंकि उसके दो भेद है । -स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण ।
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