Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 430
________________ सूत्र ८ । ] समाध्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम् - सम्यग्दर्शनद्वारः पञ्चमहाव्रतसाधनो द्वादशाङ्गोपदिष्टतत्त्वो गुप्त्यादिविशुद्वव्यवस्थानः संसारनिर्वाहको निःश्रेयस प्रापको भगवता परमर्षिणार्हताही व्याख्यातो धर्म इत्येवमनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य धर्मस्वाख्याततस्त्वमनुचिन्तयतो मार्गाच्यवने तदनुष्ठाने च व्यवस्थानं भवतीति धर्मस्वाख्याततत्वानुचिन्तनानुप्रेक्षा ॥ १२ ॥ अर्थ — परमर्षि भगवान् अरहंतदेवने जिसका व्याख्यान किया है, अहो वही एक ऐसा धर्म है, कि जो जीवोंको संसारसे पार उतारनेवाला और मोक्षको प्राप्त करानेवाला है । उसका द्वार सम्यग्दर्शन है । सम्यक्त्वका स्वरूप पहले बता चुके हैं । उसके द्वारा ही धर्मकी सिद्धि होती है । उसके विशेष साधन पाँच महाव्रत हैं। हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रहका सर्वात्मना त्याग, उसके पूर्ण स्वरूपको सिद्ध करनेवाला है । धर्मका तत्त्व - वास्तविक स्वरूप द्वादशाङ्गमें बताया है। उसकी निर्दोष - निर्मल व्यवस्था - स्थिति गुप्ति आदिके द्वारा हुआ करती है । इस प्रकार आर्हतधर्मकी महत्ताका पुनः पुनः चिन्तवन करना चाहिये । इस प्रकार धर्मके उपदिष्ट तत्त्वका जो साधुजन बार बार विचार करते हैं, वे मोक्षके मार्ग से च्युत नहीं होते, और उसके पालन करनेमें व्यवस्थित हो जाते हैं । इस प्रकार धर्मस्वाख्याततत्त्वभावनाका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ ४०५ भाष्यम् – उक्ता अनुप्रेक्षाः, परीषहान् वक्ष्यामः ॥ अर्थ -- इस प्रकार बारह भावनाओंका वर्णन किया । इस अध्यायकी आदिमें संवरके साधनों का जो उल्लेख किया है, तदनुसार गुप्ति समिति और धर्मके अनंतर क्रमसे बारह अनुप्रेक्षाओंका इस सूत्र में व्याख्यान किया । अब क्रमानुसार भावनाओंके अनन्तर संवरका साधन जो परीषहजय बताया है, उसका स्वरूप बतानेके लिये यहाँपर परीषहोंका वर्णन करनेके पूर्व उनका सहन क्यों करना चाहिये, सो बतानेको सूत्र कहते हैं । सूत्र - मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषिहाः ॥ ८ ॥ भाष्यम् -- सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गादच्यवनार्थं कर्म निर्जरार्थं च परिषोढव्याः परीषहाइति । तद्यथा अर्थ --- सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष-मार्गसे च्युत न होनेके लिये और कर्मों की निर्जरा हो इसके लिये परीषहोंका भले प्रकार सहन करना चाहिये । भावार्थ -- जो परीषहोंसे भय खाता है, वह मोक्ष-मार्गको भले प्रकार सिद्ध नहीं कर सकता, और न तपश्चरणमें इतनी दृढ़ता के विना वह कर्मोंको निर्जीर्ण ही कर सकता है । अतएव इन दो प्रयोजनोंको सिद्ध करनेके लिये सम्पूर्ण परीषह सर्वात्मना सहन करने के योग्य ही बताई हैं । परीषह शब्द अन्वर्थ है । - परिषह्यते इति परीषहाः । अतएव इनके जीतने में ही महत्व । यद्यपि यहाँपर परीषहोंके जीतने के दो प्रयोजन बताये हैं - एक मोक्षमार्ग से अप्रच्यव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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