Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 432
________________ सूत्र ९-१०-११ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । होना, क्षत्परीषहका जय कहा जाता है, ऐसा समझना चाहिये । इसी प्रकार पिपासा - प्यास परषिह आदिके विषय में भी समझ लेना चाहिये । इन परीषहोंके होनेमें कारण क्या है ? तो ज्ञानावरण वेदनीय दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय और अन्तराय इन पाँच प्रकृतियोंका उदय ही इनका अन्तरङ्ग कारण है 1 इन पाँच कर्मोंके उदयकी अपेक्षा से ही यहाँपर परीषहोंका वर्णन किया गया है। अतएव जहाँतक जिस कर्मका उदय पाया जाता है, वहाँतक उस कर्मके उदयसे कही जानेवाली परीप होंका भी उल्लेख किया गया है, ऐसा समझना चाहिये । किस किस कर्मके उदयसे कौन कौनसी परीषह होती हैं, इस बात को बतानेके पूर्व उनके स्वामियों को बताते हैं, कि कितनी कितनी परीपह किस किस गुणस्थानवर्ती जीवके पाई जाती हैं। अब इसी बात को बतानेके लिये सूत्र कहते हैं ४०७ :: सूत्र - सूक्ष्मसंपराय छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १० ॥ भाष्यम् – सूक्ष्मसंपरायसंयते छद्मस्थवीतरागसंयते च चतुर्दश परीषहा भवन्ति । - क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याप्रज्ञाज्ञानाला भशय्यावध रोगतृणस्पर्शमलानि । अर्थ — सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवाले और छद्मस्थ वीतराग संयमियोंके उपर्युक्त बाईस परीषहोंमेंसे चौदह परीषह पाई जाती हैं, जोकि इस प्रकार हैं: - क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीत परीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, चर्यापरीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, अलाभप - रोषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरपिह, और मलपरीषह । भावार्थ - संपराय नाम कषायका है । जहाँपर लोभकषाय अत्यंत मंद रह जाती है - धुले हुए कुसुमके रंगके समान जहाँपर उसका उदय बिलकुल ही हलका पाया जाता है, उसको सूक्ष्मसंपराय कहते हैं । यह दशवें गुणस्थानकी संज्ञा है। इसी प्रकार जहाँतक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है, किन्तु राग द्वेषरूप मोहकर्म वीत चुका है - शान्त या क्षीण हो चुका है, ऐसे ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानको छद्मस्थ वीतराग कहते हैं । इन तीनों ही गुणस्थानों में चौदह परीषह पाई जाती हैं। क्योंकि परीषहोंके कारणभूत कर्मका उदय इन गुणस्थानों तक पाया जाता है । क्योंकि यह बात ऊपर ही कह चुके हैं, कि प्रतिपक्षी कर्मों के उदयकी अपेक्षा से ही परीषहोंका प्रादुर्भाव समझना चाहिये । सूत्र - एकादश जिने ॥ ११ ॥ भाष्यम् - एकादश परीषहाः संभवन्ति जिने वेदनीयाश्रयाः । तद्यथा - क्षुत्पिपासाशी • तोष्णदंशमशक चर्या शय्यावधरोगतृणस्पर्शमलपरीषहाः ॥ अर्थ — वेदनीयकर्मके आश्रयसे जिन भगवान् - तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवालोंके ग्यारह परीषह संभव हैं । जोकि इस प्रकार हैं- सुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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